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________________ ૪૪ आत्म-कथा : भाग ५ कटुता कुछ कम हो गई है और जिस राज्यसत्ताने सविनय कानूनग सहन कर लिया है वह लोकमतका सर्वथा अनादर नहीं करेगी, ऐसा उनको विश्वास हो गया है । इसलिए मैं यह मानता हूं कि चंपारन और खेड़ामें मैंने जो कार्य किया है वह लड़ाईके संबंध में मेरी सेवा ही है । fe आप मुझे इस प्रकारका कार्य बंद करनको कहेंगे तो मैं यही समझंगा . कि आप मुझे अपने श्वासको ही रोक देनेके लिए कहते हैं । यदि शस्त्र के स्थान में मुझे आत्मबल अर्थात् प्रेमबलको लोकप्रिय बनाने में सफलता मिले तो मैं यह जानता हूं कि हिंदुस्तानपर सारे fast त्योरी चढ़ जाय तो भी वह उसका सामना कर सकेगा । इसलिए हर समय कष्ट सहन करनेकी इस सनातन रीतिको अपने जीवनमें उतारनेके लिए मैं अपनी आमाको कसता रहूंगा और दूसरोंको भी इस नीतिको अंगीकार करने के लिए कहता रहूंगा । और यदि मैं कोई और काम करता भी हूं तो वह इसी नीतिको अद्वितीय उत्तमता सिद्ध करनेके लिए ही । " अंत में आपसे विनती करता हूं कि आप मुसलमान राज्योंके बारेमे निश्चित विश्वास दिलानेकी प्रेरणा ब्रिटिश प्रधानमंडलको करें । आप जानते हैं कि इस विषय में प्रत्येक मुसलमानको चिंता बनी रहती है । एक हिंदू होकर मैं उनकी इस चिंताके प्रति लापरवाह नहीं रह सकता हूं। उनका दुःख तो हमारा ही दुःख है । मुसलमानी राज्यके हकोंकी रक्षा करनेमें, उनके धर्मस्थानोंके विषयमें उनके भावोंका आदर करनेमें और हिंदुस्तानकी होमरूलकी मांग स्वीकार करनेमें arrant सामी है । मैंने यह पत्र इसलिए लिखा है कि मैं अंग्रेजोंको चाहता हूं और अंग्रेजोंमें जैसी वफादारी है, वैसी ही मैं प्रत्येक भारतीयमें जाग्रत करना चाहता हूँ ।"
SR No.100001
Book TitleAtmakatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohandas Karamchand Gandhi, Gandhiji
PublisherSasta Sahitya Mandal Delhi
Publication Year1948
Total Pages518
LanguageHindi
ClassificationInterfaith & Interfaith
File Size70 MB
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