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________________ ४५२ आत्म-कथा: भाग ५ मतका समर्थन जहां तक हो सका, मीठे शब्दोंमें करना पड़ा था । पहले जिस पत्रका उल्लेख किया गया है उसका सारांश इस प्रकार है-- ___"सभामें उपस्थित होनेके लिए मैं हिचकिचा रहा था, परंतु आपसे मुलाकात करने के बाद मेरी हिचकिचाहट दूर हो गई है। और उसका एक कारण यह अवश्य है कि आपके प्रति मुझे बहुत आदर है । न आनेके कारणों में एक मजबूत कारण यह था कि उसमें लोकमान्य तिलक, श्रीमती बेसेंट और अलीभाइयों को निमंत्रण नहीं दिया गया था। इन्हें मैं जनताके बड़े ही शक्तिशाली नेता मानता हूं। मैं तो यह मानता हूं कि उनको निमंत्रण न भेजकर सरकारने बड़ी गं पीर भूल की है। मैं अब भी यह सुझाना चाहता हूं कि जब प्रांतीय सभाएं की जायं तब उन्हें अवश्य निमंत्रण भेजा जाय । मेरी नाकिस रायमें चाहे कैसा ही मतभेद क्यों न हो, कोई भी सल्तनत ऐसे प्रौढ़ नेताओंकी अवगणना नहीं कर सकती। इसी कारण मैं सभाको कमेटियों में शामिल न हो सका और सभामें प्रस्तावका समर्थन करके संतुष्ट हो गया । सरकारने यदि मेरे सुझाव स्वीकृत कर लिये तो मैं तुरंत ही इस काममें लग जानेको आशा रखता हूँ। "जिस सल्तनतमें हम भविष्य में संपूर्ण हिस्सेदार बननेकी आशा करते हैं, उसको आपत्तिकालमें पूरी मदद करना हमारा धर्म है। परंतु मुझे यह कहना चाहिए कि उसके साथ हमें यह आशा भी रही है कि इस मददके कारण हम अपने ध्येयतक जल्दी पहुंच सकेंगे। इसलिए लोगोंको यह माननेका अधिकार है कि जिन सुधारोंको देनेकी आशा आपने अपने भाषणमें दिखलाई है उनमें कांग्रेस और मुस्लिम लीगको मुख्य-मुख्य मांगोंका भी समावेश होगा। अगर मुझसे बन पड़ता तो मैं ऐसे समयमें होमरूल वगैराका उच्चार तक न करता और साम्राज्यके ऐसे नाजुक समयपर तमाम शक्तिशाली भारतीयोंको उसकी रक्षा चुपचाप कुरबान हो जाने के लिए कहता। इतना करनेसे ही हम साम्राज्यके बड़े-बड़े और सम्माननीय हिस्सेदार बन जाते और रंग-भेद और देश-भेद दूर हो जाता।
SR No.100001
Book TitleAtmakatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohandas Karamchand Gandhi, Gandhiji
PublisherSasta Sahitya Mandal Delhi
Publication Year1948
Total Pages518
LanguageHindi
ClassificationInterfaith & Interfaith
File Size70 MB
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