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________________ ४१२ आत्म-कथा : भाग ५ लखनऊसे मैं कानपुर गया था। वहां भी देखा तो राजकुमार शुक्ल मौजूद । “यहांसे चंपारन बहुत नजदीक है। एक दिन दे दीजिए।" "अभी तो मुझे माफ कीजिए; पर मैं यह वचन देता हूं कि मैं आऊंगा जरूर।" यह कहकर वहां जाने के लिए मैं और भी बंध गया । . मैं आश्रम पहुंचा तो वहां भी राजकुमार शुक्ल मेरे पीछे-पीछे मौजूद । "अब तो दिन मुकर्रर कर दीजिए।" मैंने कहा- "अच्छा, अमुक तारीखको कलकत्ते जाना है, वहां आकर मुझे ले जाना।" कहां जाना, क्या करना, क्या देखना, मुझे इसका कुछ पता न था। कलकत्तेप्ने भूपेनवाबूके यहां मेरे पहुंचनेके पहले ही राजकुमार शुक्लका पड़ाव पड़ चुका था। अब तो इस पढ़-अनघड़ परंतु निश्चयी किसानने मुझे जीत लिया ।। १९१७के आरंभमें कलकत्तेसे हम दोनों रवाना हुए। हम दोनों की एक-सी जोड़ी--दोनों किसान-से दीखते थे। राजकुमार शुक्ल और मैं-- हम दोनों एक ही गाड़ी में बैठे। सुबह पटना उतरे । पटनेकी यह मेरी पहली यात्रा थी। वहां मेरी किसीसे इतनी पहचान नहीं थी कि कहीं ठहर सकू। . . मैंने मनमें सोचा था कि राजकुमार शुक्ल हैं तो अनघड़ किसान, परंतु यहां उनका कुछ-न-कुछ जरिया जरूर होगा। ट्रेनमें उनका मुझे अधिक हाल मालूम हुआ। पटन में जाकर उनकी कलई खुल गई। राजकुमार शुक्लका भाव तो निर्दोष था, परंतु जिन वकीलोंको उन्होंने मित्र माना था वे मित्र न थे; बल्कि राजकुमार शुक्ल उनके आश्रितकी तरह थे। इस किसान मवक्किल और उन वकीलोंके बीच उतना ही अंतर था, जितना कि बरसातमें गंगाजीका पाट चौड़ा हो जाता है । - मुझे वह राजेंद्रबाबूके यहां ले गये। राजेंद्रबाबू पुरी या कहीं और गये थे। बंगलेपर एक-दो नौकर थे । खानेके लिए कुछ तो मेरे साथ था; परंतु मुझे खजूरकी जरूरत थी; सो बेचारे राजकुमार शुक्लने बाजारसे ला दी। परंतु बिहार में छुआ-छूतका बड़ा सख्त रिवाज था। मेरे डोलके पानीके छींटेसे नौकरको छूत लगती थी। नौकर बेचारा क्या जानता कि मैं किस जातिका था ? अंदरके पाखानेका उपयोग करनेके लिए राजकुमारने कहा तो नौकरने
SR No.100001
Book TitleAtmakatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohandas Karamchand Gandhi, Gandhiji
PublisherSasta Sahitya Mandal Delhi
Publication Year1948
Total Pages518
LanguageHindi
ClassificationInterfaith & Interfaith
File Size70 MB
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