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________________ अध्याय ११ : गिरमिट-प्रथा ४०९ बिगड़े और उस खुफियाको गाली देकर डांटने लगे-- " इस बेचारे साधुको नाहक क्यों सताते हो ? " और मेरी तरफ मुखातिब होकर कहा-- “इन बदमाशोंको टिकट मत बतायो ।” ___ मैंने धीमेसे इन यात्रियोंसे कहा-- " उनके टिकट देखनेसे मुझे कोई कष्ट नहीं होता, वे अपना फर्ज अदा करते हैं, इससे मुझे किसी तरहका दुःख नहीं है।" उन मुसाफिरोंको यह बात जंची नहीं। वे मुझपर अधिक तरस खाने लगे और आपसमें बातें करने लगे कि देखो, निरपराध लोगोंको भी ये कैसे हैरान करते हैं ! ___ इन खुफियोंसे तो मुझे कोई तकलीफ न मालूम हुई; परंतु लाहौरसे लेकर देहलीतक मुझे रेलवेकी भीड़ और तकली फका बहुत ही कडुआ अनुभव हुआ। कराचीसे लाहौर होकर मुझे कलकत्ता जाना था। लाहौर में गाड़ी बदलनी पड़ती थी। यहां गाड़ोम मेरी कहीं दाल नहीं गलती थी। मुसाफिर जबरदस्ती घुस पड़ते थे। दरवाजा बंद होता तो खिड़कीमेंसे अंदर घुस जाते थे। इधर मुझे नियत तिथिको कलकत्ता पहुंचना जरूरी था । यदि यह ट्रेन छूट जाती तो मैं कलकत्ते समयपर नहीं पहुंच सकता था । मैं जगह मिलनेकी आशा छोड़ रहा था। कोई मुझे अपने डब्बेमें नहीं लेता था। अखीरको मुझे जगह खोजता हुआ देखकर एक मजदूरने कहा- “मुझे बारह आने दो तो मैं जगह दिला दूं ।" मैंने कहा- “जगह दिला दो तो मैं बारह आने जरूर दूंगा।" बेचारा मजदूर मुसाफिरोंके हाथ-पांव जोड़ने लगा; पर कोई मुझे जगह देने के लिए तैयार नहीं होते थे। गाड़ी छूटनेकी तैयारी थी। इतनेमें एक डब्बेके कुछ मुसाफिर बोले-- “ यहां जगह नहीं है। लेकिन इसके भीतर घुसा सकते हो तो घुसा दो; खड़ा रहना होगा।" मजदूरने मुझसे पूछा-- “क्योंजी ? " मैंने कहा-- "हां, घुसा दो !” तब उसने मुझे उठाकर खिड़की से अंदर फेंक दिया। मैं अंदर घुसा और मजदूरने बारह आने कमाये । मेरी यह रात बड़ी मुश्किलोंसे बीती । दूसरे मुसाफिर तो किसी तरह ज्यों-त्यों करके बैठ गये; परंतु मैं ऊपरकी बैठककी जंजीर पकड़कर खड़ा ही रहा । बीच-बीचमें यात्री लोग मुझे डांटते भी जाते-- "अरे, खड़ा क्यों है, बैठ क्यों नहीं जाता?" मैंने उन्हें बहुतेरा समझाया कि बैठनेकी जगह नहीं है; परंतु उन्हें
SR No.100001
Book TitleAtmakatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohandas Karamchand Gandhi, Gandhiji
PublisherSasta Sahitya Mandal Delhi
Publication Year1948
Total Pages518
LanguageHindi
ClassificationInterfaith & Interfaith
File Size70 MB
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