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________________ ३९२ आत्म-कथा : भाग ५ मेरा प्रयत्न पूना पहुंचकर उत्तर - क्रिया इत्यादिसे निवृत्त हो हम सब लोग इस बातपर विचार करने लगे कि समितिका काम कैसे चलाया जाय और मैं उसका सदस्य बनूं या नहीं । इस समय मुझपर बड़ा बोझ प्रा पड़ा था । गोखलेके जीतेजी मुझे समितिमें प्रवेश करनेकी आवश्यकता ही नहीं थीं । मैं तो सिर्फ गोखलेकी आज्ञा र इच्छाके अधीन रहना चाहता था । यह स्थिति मुझे भी पसंद थी; क्योंकि भारतवर्षके-जैसे तूफानी समुद्रमें कूदते हुए मुझे एक दक्ष कर्णधारकी' आवश्यकता थी और गोखले - जैसे कर्णधारके आश्रय में मैं अपनेको सुरक्षित समझता था । अब मेरा मन कहने लगा कि मुझे समितिमें प्रविष्ट होनेके लिए जरूर प्रयत्न करना चाहिए। मैंने सोचा कि गोखलेकी आत्मा यही चाहती होगी । मैंने बिना संकोच दृढ़ताके साथ प्रयत्न शुरू किया । इस समय समितिके सब सदस्य वहां मौजूद थे । मैंने उनको समझाने और मेरे संबंधमें जो भय उन्हें था उसको दूर करनेकी भरसक कोशिश की, पर मैंने देखा कि सदस्योंमें इस विषयपर मतभेद था । कुछ सदस्योंकी राय थी कि मुझे समितिमें ले लेना चाहिए और कुछ दृढ़तापूर्वक इसका विरोध करते थे; परंतु दोनोंके मनमें मेरे प्रति प्रेम-भाव की कमी न थी; किंतु हां, मेरे प्रति प्रेमकी अपेक्षा समितिके प्रति उनकी वफादारी शायद अधिक थी; मेरे प्रति प्रेमसे तो कम किसी हालत में न थी । इससे हमारी यह सारी बहस मीठी थी और केवल सिद्धांतपर ही थी । जो मित्र मेरा विरोध कर रहे थे उनका यह खयाल हुआ कि कई बातों में मेरे और उनके विचारोंमें जमीन-आसमानका अंतर है । इससे भी आगे चलकर उनका यह खयाल हुआ कि जिन ध्येयोंको सामने रखकर गोखलेने समितिकी रचना की थी, मेरे समिति में ना जानेसे उन्हींके जोखिम में पड़ जाने की संभावना थी और यह बात उन्हें स्वाभाविक तौरपर ही असा मालूम हुई । बहुत कुछ चर्चा हो जाने के बाद हम अपने-अपने घर गये । सभ्योंने अंतिम निर्णय सभाकी दूसरी
SR No.100001
Book TitleAtmakatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohandas Karamchand Gandhi, Gandhiji
PublisherSasta Sahitya Mandal Delhi
Publication Year1948
Total Pages518
LanguageHindi
ClassificationInterfaith & Interfaith
File Size70 MB
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