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________________ अध्याय ४७ : सवक्किल जैलसे कैसे बचा ? ३७७ अधिक पूछ-ताछ करनेसे मालूम हुआ कि यह चोरी बहुत दिनों से होती आ रही थी । जो चोरी पकड़ी गई थी वह तो थोड़ी ही थी । पुराने वकील के पास हम लोग गये । उन्होंने सारी बात सुनकर कहा कि " यह मामला जूरी के पास जायगा | यहांके जूरी हिंदुस्तानीको क्यों छोड़ने लगे ? पर मैं निराश होना नहीं चाहता । इन वकील साथ मेरा गाढ़ा परिचय न था । इसलिए पारसी रुस्तमजीने ही जवाब दिया--" इसके लिए आपको धन्यवाद है । परंतु इस मुकदमे में मुझे मि० गांधी की सलाह के अनुसार काम करना है । वह मेरी बातोंको अधिक जानते हैं । श्राप जो कुछ सलाह देना मुनासिब समझें हमें देते रहिएगा । " इस तरह थोड़े में समेटकर हम रुस्तमजी सेठकी दूकानपर गये । נן 61 मैंने उन्हें समझाया -- 'मुझे यह मामला अदालत में जाने लायक नहीं दिखाई देता । मुकदमा चलाना न चलाना चुंगी - अफसरके हाथ में है । उसे भी सरकारके प्रधान वकीलकी सलाह से काम करना होगा । मैं इन दोनोंसे मिलने के लिए तैयार हूं, परंतु मुझे तो उनके सामने यह चोरीकी बात कबूल करना पड़ेगी, जोकि वे अभीतक नहीं जानते हैं। मैं तो यह सोचता हूं कि जो जुरमाना वे तजवीज कर दें उसे मंजूर कर लेना चाहिए। बहुत मुमकिन है कि वे मान जायंगे । परंतु यदि न मानें तो फिर आपको जेल जानेके लिए तैयार रहना होगा । मेरी राय तो यह है कि लज्जा जेल जानेमें नहीं, बल्कि चोरी करने में है । अब लज्जाका काम तो हो चुका ; यदि जेल जाना पड़े तो उसे प्रायश्चित्त ही समझना चाहिए । सच्चा प्रायश्चित्त तो यह है कि अब आगेसे ऐसी चोरी न करनेकी प्रतिज्ञा कर लेनी चाहिए ।" मैं यह नहीं कह सकता कि रुस्तमजी सेठ इन सब बातोंको ठीकठीक समझ गये हों । वह बहादुर आदमी थे । पर इस समय हिम्मत हार गये थे । उनकी इज्जत बिगड़ जाने का मौका आ गया था और उन्हें यह भी डर था कि खुद मिहनत करके जो यह इमारत खड़ी की थी वह कहीं सारी की सारी न ढह जाय । उन्होंने कहा-- "मैं तो आपसे कह चुका हूं कि मेरी गर्दन आपके हाथमें हैं । जैसा आप मुनासिब समझें वैसा करें । 12 मैंने इस मामले में अपनी सारी कला और सौजन्य खर्च कर डाला ।
SR No.100001
Book TitleAtmakatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohandas Karamchand Gandhi, Gandhiji
PublisherSasta Sahitya Mandal Delhi
Publication Year1948
Total Pages518
LanguageHindi
ClassificationInterfaith & Interfaith
File Size70 MB
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