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________________ अध्याय ४४ : वकालतकी कुछ स्मृतियां ४४ ३६९ वकालत की कुछ स्मृतियां हिंदुस्तान में प्रानेके बाद मेरे जीवनका प्रवाह किस ओर किस तरह बहा --- इसका वर्णन करने के पहले कुछ ऐसी बातोंका वर्णन करने की जरूरत मालूम होती है, जो मैंने जान-बूझकर छोड़ दी थीं । कितने ही वकील मित्रोंने चाहा है कि मैं अपने वकालतके दिनोंके और एक वकीलकी हैसियत से अपने कुछ अनुभव सुनाऊं । अनुभव इतने ज्यादा हैं कि यदि सबको लिखने बैठूं तो उन्हीं से एक पुस्तक भर जायगी । परंतु ऐसे वर्णन इस पुस्तक के विषयकी मर्यादाके बाहर चले जाते हैं । इसलिए यहां केवल उन्हीं अनुभवोंका वर्णन करना कदाचित् अनुचित न न होगा, जिनका संबंध सत्य से है । जहांतक मुझे याद है, मैं यह बता चुका हूं कि वकालत करते हुए मैंने कभी असत्या प्रयोग नहीं किया और वकालतका एक बड़ा हिस्सा केवल लोकसेवाके लिए ही अर्पित कर दिया था एवं उसके लिए मैं जेब खर्च से अधिक कुछ नहीं लेता था और कभी-कभी तो वह भी छोड़ देता था । मैं यह मानकर चला था कि इतनी प्रतिज्ञा इस विभाग के लिए काफी है । परंतु मित्र लोग चाहते हैं कि इससे भी कुछ आगे की बातें लिखूं, क्योंकि उनका खयाल है कि यदि मैं ऐसे प्रसंगोंका थोड़ा-बहुत भी वर्णन करूं कि जिनमें मैं सत्यकी रक्षा कर सका तो उससे वकीलों को कुछ जानने योग्य बातें मिल जायेंगी । २४ मैं अपने विद्यार्थी जीवनसे ही यह बात सुनता आ रहा हूं कि वकालत में बिना झूठ बोले काम नहीं चल सकता । परंतु मुझे तो झूठ बोलकर न तो कोई पद प्राप्त करना था, न कुछ धन जुटाना था । इसलिए इन बातोंका मुझपर कोई प्रभाव नहीं पड़ता था । दक्षिण अफ्रीका में इसकी कसौटी के मौके बहुत बार आये । मैं जानता था कि हमारे विपक्ष गवाह सिखा-पढ़ाकर लाये गये हैं और मैं यदि थोड़ा भी अपने मवक्किलको या गवाहको झूठ बोलने में उत्साहित करूं तो मेरा मवक्किल जीत सकता है; परंतु मैंने हमेशा इस लालचको पास नहीं फटकने दिया । ऐसे
SR No.100001
Book TitleAtmakatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohandas Karamchand Gandhi, Gandhiji
PublisherSasta Sahitya Mandal Delhi
Publication Year1948
Total Pages518
LanguageHindi
ClassificationInterfaith & Interfaith
File Size70 MB
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