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________________ ३५२ आत्म-कथा : भाग ४ हम फलाहारी थे, इसलिए हमको ताजे और सूखे फल देने की आज्ञा भी जहाजके खजांचीको दे दी गई थी। मामूली तौरपर तीसरे दर्जे के यात्रियोंको फल कम ही मिलते हैं और मेवा तो कतई नहीं मिलता। पर इस सुविधाकी बदौलत हम लोग समुद्रपर बहुत शांतिसे १८ दिन बिता सके । . इस यात्राके कितने ही संस्मरण जानने योग्य हैं। मि० फेलनबेकको दूरवीनोंका बड़ा शौक था । दो-एक कीमती दूरबीनें उन्होंने अपने साथ रक्खी थीं। इसके विषयमें रोज हमारे अापसमें बहस होती। मैं उन्हें यह जंचाने की कोशिश करता कि यह हमारे आदर्श के और जिस सादगीको हम पहुंचना चाहते हैं उसके अनुकूल नहीं है । एक रोज तो हम दोनोंमें इस विषयपर गरमागरम बहस हो गई । हम दोनों अपनी कैबिनकी खिड़कीके पास खड़े थे। ___ मैंने कहा--- "अापके और मेरे बीच ऐसे झगड़े होनेसे तो क्या यह बेहतर नहीं है कि इस दूरवीनको समुद्रमें फेंक दें और इसकी चर्चा ही न करें ?" मि० केलनबेकन तुरंत उत्तर दिया-- “जरूर इस झगड़ेकी जड़को फेंक ही दीजिए।" ___मैंने कहा-- “देखो, मैं फेंक देता हूं !" उन्होंने बे-रोक उत्तर दिया-- "मैं सचमुच कहता हूं, फेंक दीजिए।" और मैंने दूरबीन फेंक दी। उसका दाम कोई सात पौंड था। परंतु उसकी कीमत उसके दामकी अपेक्षा मि० केलनवेकके उसके प्रति मोहमें थी। फिर भी मि० केलनबेकने अपने मनको कभी इस बातका दुःख न होने दिया। उनके मेरे बीच तो ऐसी कितनी ही बात हुआ करती थीं-यह तो उसका एक नमूना पाठकोंको दिखाया है । हम दोनों सत्यको सामने रखकर ही चलनेका प्रयत्न करते थे। इसलिए मेरे उनके इस संबंधके फलस्वरूप हम रोज कुछ-न-कुछ नई बात सीखते । सत्यका अनुसरण करते हुए हमारे क्रोध, स्वार्थ, द्वेष इत्यादि सहज ही शमन हो जाते थे और यदि न होते तो सत्यकी प्राप्ति न होती थी। भले ही राग-द्वेषादिसे भरा मनुष्य सरल हो सकता है, वह वाचिक सत्य भले ही पाल ले, पर उसे शुद्ध सत्यकी प्राप्ति नहीं हो सकती। शुद्ध सत्यकी शोध करने के मानी हैं रागद्वेषादि द्वंद्वसे सर्वथा मुक्ति प्राप्त कर लेना ।
SR No.100001
Book TitleAtmakatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohandas Karamchand Gandhi, Gandhiji
PublisherSasta Sahitya Mandal Delhi
Publication Year1948
Total Pages518
LanguageHindi
ClassificationInterfaith & Interfaith
File Size70 MB
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