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________________ अध्याय २८ : पत्नीकी दृढ़ता ३२६ भोजनमें-नहीं दिया जा सकता था। सो उन्होंने मुझे जोहान्सबर्ग टेलीफोन किया-- "आपकी पत्नीको मैं मांसका शोरवा और 'वीफ टी' देनेकी जरूरत समझता हूं। मुझे इजाजत दीजिए।" मैंने जवाब दिया, "मैं तो इजाजत नहीं दे सकता। परंतु कस्तूरबाई आजाद है। उसकी हालत पूछने लायक हो तो पूछ देखिए और वह लेना चाहे तो जरूर दीजिए ।” "बीमारसे मैं ऐसी बातें नहीं पूछना चाहता। आप खुद यहां आ जाइए । जो चीजें में बताता हूं उनके खानेकी इजाजत यदि आप न दें तो मैं आपकी पत्नीकी जिंदगीके लिए जिम्मेदार नहीं हूं।" यह सुनकर मैं उसी दिन डरबन रवाना हुआ। डाक्टरसे मिलनेपर उन्होंने कहा-- " मैंने तो शोरवा पिलाकर आपको टेलीफोन किया था।" मैंने कहा-- “डाक्टर, यह तो विश्वासघात है ।" "इलाज करते वक्त मैं दगा-वगा कुछ नहीं समझता। हम डाक्टर लोग ऐसे समय बीमारको, उसके रिश्तेदारोंको, धोखा देना पुण्य समझते हैं। हमारा धर्म तो है जिस तरह हो सके रोगीको बचाना ।” डाक्टरने दृढ़तापूर्वक उत्तर दिया । यह सुनकर मुझे बड़ा दुःख हुआ। पर मैंने शांति धारण की। डाक्टर मित्र थे, सज्जन थे। उनका और उनकी पत्नीका मुझपर बड़ा अहसान था। पर मैं उनके इस व्यवहारको बर्दाश्त करनेके लिए तैयार न था । डाक्टर, अब साफ-साफ बातें कर लीजिए । बताइए, आप क्या करना चाहते हैं ? मेरी पत्नीको बिना उसकी इच्छाके मांस नहीं देने दूंगा, उसके न लेनेसे यदि वह मरती हो तो इसे सहन करनेके लिए मैं तैयार हूं।" डाक्टर बोले--" आपका यह सिद्धांत मेरे घर नहीं चल सकता। मैं तो आपसे कहता हूं कि आपकी पत्नी जबतक मेरे यहां है तबतक मैं मांस अथवा जो कुछ देना मुनासिव समझूगा जरूर दूंगा। अगर आपको यह मंजूर नहीं है तो आप अपनी पत्नीको यहांसे ले जाइए। अपने ही घरमें मैं इस तरह उन्हें नहीं मरने दूंगा।"
SR No.100001
Book TitleAtmakatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohandas Karamchand Gandhi, Gandhiji
PublisherSasta Sahitya Mandal Delhi
Publication Year1948
Total Pages518
LanguageHindi
ClassificationInterfaith & Interfaith
File Size70 MB
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