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आत्म-कथा : भाग ४
यहां मुझे यह भी कह देना चाहिए कि उन कर्मचारियोंकी ज्यादती यहांतक बढ़ गई कि उन्हें बहुत जासूस नहीं मिलते थे । हिंदुस्तानियों और चीनियोंकी यदि मुझे मदद न मिलती तो ये कर्मचारी नहीं पकड़े जा सकते थे ।
उन दो कर्मचारियोंमें से एक भाग निकला। पुलिस कमिश्नरने उसके नाम बाहरका वारंट निकालकर उसे पकड़ मंगाया और मुकदमा चला । सबूत भी काफी पहुंच गया था । इधर ज्यूरीके पास एकके भाग जानेका तो प्रमाण भी था । फिर भी वे दोनों बरी हो गये ।
इससे मैं स्वभावतः बहुत निराश हुआ। पुलिस कमिश्नर को भी दुःख हुआ । वकीलोंके रोजगारके प्रति मेरे मन में घृणा उत्पन्न हुई । बुद्धिका उपयोग पराको छिपाने में देख मुझे यह बुद्धि ही खलने लगी ।
उन दोनों कर्मचारियोंके अपराधकी शोहरत इतनी फैल गई थी कि उनके छूट जानेपर भी सरकार उन्हें अपने पदपर न रख सकी। वे दोनों अपनी जगहसे निकाले गये । इससे एशियाई थाने की गंदगी कुछ कम हुई और लोगोंको भी अब धीरज बंधा और हिम्मत भी आई ।
इससे मेरी प्रतिष्ठा बढ़ गई। मेरी वकालत भी चमकी । लोगोंके जो सैकड़ों पौंड रिश्वतमें जाते थे, वे सबके सब नहीं तो भी बहुत अधिक बच गए। रिश्वतखोर तो अब भी हाथ मार ही लेते थे; पर यह कहा जा सकता है। कि ईमानदार लोगोंके लिए अपने ईमानको कायम रखनेकी सुविधा हो गई थी । वे कर्मचारी इतने अधम थे; लेकिन, मैं कह सकता हूं, उनके प्रति मेरे मनमें कुछ भी व्यक्तिगत दुर्भाव नहीं था । मेरे इस स्वभावको वे जानते थे और जब उनकी असहाय अवस्थामें सहायता करनेका मुझे अवसर मिला तो मैंने उनकी सहायता भी की है। जोहान्सबर्गकी म्युनिसिपैलिटी में यदि मैं उनका विरोध न करूं तो उन्हें नौकरी मिल सकती थी । इसके लिए उनका एक मित्र मुझसे मिला और मैंने उन्हें नौकरी दिलाने में मदद करना मंजूर किया । और उनकी नौकरी लग भी गई ।
इसका यह असर हुआ कि जिन गोरे लोगोंके संपर्क में मैं प्राया वे मेरे विषयमें निःशंक होने लगे । यद्यपि उनके महकमोंके विरुद्ध मुझे कई बार लड़ना पड़ता, कठोर शब्द कहने पड़ते, फिर भी वे मेरे साथ मधुर संबंध रखते