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________________ २७४ आत्म-कथा : भाग ४ रहने की आशामे मनको ज्यों-त्यों करके फुसला लिया। इससे व्रतके अक्षरार्थको ले बकरीका दूध लेनेका निश्चय किया, यद्यपि बकरी-माताका दूध लेते समय भी मेरा मन कह रहा था कि व्रतकी आत्माका यह हनन है । पर मुझे तो रौलट-ऐक्ट के खिलाफ आंदोलन खड़ा करना था। यह मोह मुझे नहीं छोड़ रहा था। इससे जीनेकी भी इच्छा बनी रही और जिसे मैं अपने जीवनका महा प्रयोग मानता हूं, वह बात रुक गई । . 'खाने-पीने के साथ आत्माका कुछ संबंध नहीं। वह न खाती है न पीती है। जो चीज पेटमें जाती है वह नहीं, बल्कि जो वचन अंदरसे निकलते हैं वे लाभहानि करते हैं, इत्यादि दलीलोंको मैं जानता हूं। इनमें तथ्यांश है ; परंतु दलीलोंके झगड़े में पड़े बिना ही यहां तो मैं अपना निश्चय ही लिख रखना चाहता हूं कि जो मनुष्य ईश्वरसे डरकर चलना चाहता है, जो ईश्वरका प्रत्यक्ष दर्शन करना चाहता है, उस साधक या मुमुक्षुके लिए अपनी खुराकका चुनाव, त्याग और ग्रहणउतना ही आवश्यक है जितना कि विचार और वाचाका चुनाव, त्याग और ग्रहण आवश्यक है। पर जिन बातोंमें मैं खुद गिर गया हूं उनमें दूसरोंको मैं अपने सहारे चलनेकी सलाह न दूंगा। यही नहीं, बल्कि चलनेसे रोकूगा। इस कारण 'आरोग्यसंबंधी सामान्य ज्ञान के आधारपर प्रयोग करनेवाले भाई-बहनोंको मैं सावधान कर देना चाहता हूं। जब दूधका त्याग सर्वांशमें लाभदायक मालूम हो अथवा अनुभवी वैद्य-डाक्टर उसके छोड़नेकी सलाह दें तब तो ठीक, नहीं तो सिर्फ मेरी पुस्तक पढ़कर कोई सज्जन दूध न छोड़ दें। हिंदुस्तानका मेरा अनुभव अबतक तो मुझे यही बताता है कि जिनकी जठराग्नि मंद हो गई हो और जो बिछौनेपर ही पड़े रहने लायक हो गये हैं उनके लिए दूधके बराबर हलका और पोषक पदार्थ दूसरा नहीं। इसलिए पाठकोंसे मेरी विनती और सलाह है कि इस पुस्तकमें जो दूधकी मर्यादा सूचित की गई है, उसपर वे प्रारूड़ न रहें। ___ इन प्रकरणोंको पड़नेवाले कोई वैद्य, डाक्टर, हकीम या दूसरे अनुभवी सज्जन दूधकी एवजमें उतनी ही पोषक और पाचक वनस्पति----केवल अपने अध्ययनके आधारपर नहीं बल्कि ; अनुभवके आधारपर--जानते हों तो मुझे .. सूचित कर उपकृत करें।
SR No.100001
Book TitleAtmakatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohandas Karamchand Gandhi, Gandhiji
PublisherSasta Sahitya Mandal Delhi
Publication Year1948
Total Pages518
LanguageHindi
ClassificationInterfaith & Interfaith
File Size70 MB
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