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अध्याय ३ : जहरको चूंट पीनी पड़ी २६१ हुआ। ऐसा करके हमने अपने कर्त्तव्यका पालन किया है । चाहे इसका फल हम खुद न देख सके; पर मेरा तो यह दृढ़ विश्वास है कि शुभकार्यका फल सदा शुभ ही होता है और होगा । अब तो हमें गई-गुजरी बातोंको छोड़कर इस बातपर विचार करना चाहिए कि अब हमारा कर्त्तव्य क्या है ? यही अधिक लाभप्रद है।"
दूसरे मित्रोंने भी इस बातका समर्थन किया ।
मैंने कहा--" सच पूछिए तो जिस कामके लिए मैं यहां बुलाया गया था वह तो पूरा हो गया समझना चाहिए; पर मेरी अंतरात्मा कहती है कि अब लोग यदि मुझे यहांसे छुट्टी दे भी दें तो भी जहांतक मेरा बस चलेगा, मैं ट्रांसवालसे नहीं हट सकता। मेरा काम अब नेटालसे नहीं, बल्कि यहींसे चलना चाहिए। अब मुझे कम-से-कम एक सालतक यहांसे लौट जानेका विचार त्याग देना चाहिए और मुझे यहां वकालत करनेकी सनद प्राप्त कर लेनी चाहिए। इस नये महकमेके मामलेको तय करा लेनेकी हिम्मत मैं अपने अंदर पाता हूं। यदि इस मामलेका तस्फिया न कराया तो कौमके लुट जाने, और ईश्वर न करे, यहांसे उसका नामोनिशान मिट जानेका अंदेशा मुझे है। उसकी हालत तो दिनदिन गिरती ही जायगी, इसमें मुझे कोई संदेह नहीं। मि० चैबरलेनका मुझसे न मिलना, उस अधिकारीका मेरे साथ तिरस्कारका बर्ताव करना--ये बातें तो सारी कौमकी--सारे समाजकी मानहानिके मुकाबिलेमें कुछ भी नहीं है। हम यहां कुत्तेकी तरह दुम हिलाते रहें, यह कैसे बरदाश्त किया जा सकता है ? "
____ मैंने इस तरह अपनी बात लोगोंके सामने रक्खी। प्रिटोरिया और जोहान्सबर्गम रहने वाले भारतीय अगुओंके साथ सलाह-मशवरा करके अंतमें जोहान्सबर्गमें मैंने अपना दफ्तर खोलने का निश्चय किया ।
ट्रांसवालमें भी मुझे यह तो शक था ही कि वकालतकी सनद मिलेगी भी या नहीं? परंत, ईश्वरने खैर की। यहांके वकील-मंडलकी ओरसे मेरी दरख्वास्तका विरोध नहीं किया गया और बड़ी अदालतने मेरी दरख्वास्त मंजूर कर ली।
. वहां एक भारतवासीके दफ्तरके लिए अच्छी जगह मिलना भी मुश्किल था; परंतु मि० रीचके साथ मेरा खासा परिचय हो गया था। उस समय वह व्यापारी-वर्गमें थे। उनकी जान-पहचानके हाउस-एजेंट-- मकानोंके दलालके मार्फत दफ्तरके लिए अच्छी जगह मिल गई और मैंने वकालत शुरू कर दी।