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________________ २३६ आत्म-कथा : भाग ३ .. . गोखलेके साथ एक मास--२ गोखलेकी छत्रछायामें रहकर यहां मैंने अपना सारा समय घरमें बैठकर नहीं बिताया । मैने अपने दक्षिण अफ्रीकावाले ईसाई-मित्रोंसे कहा था कि भारतमें मैं अपने देसी ईसाइयोंसे जरूर मिलूंगा और उनकी स्थितिको जानूंगा। कालीचरण बनर्जीका नाम मैंने सुना था। कांग्रेसमें वह आगे बढ़कर काम करते थे, इसलिए उनके प्रति मेरे मनमें आदर-भाव हो गया था। क्योंकि हिंदुस्तानी ईसाई आम तौरपर कांग्रेससे और हिंदुओं तथा मुसलमानोंसे अलग रहते थे, इसलिए जो अविश्वास उनके प्रति था, वह कालीचरण बनर्जीके प्रति न दिखाई दिया। मैंने गोखलेसे कहा कि मैं उनसे मिलना चाहता हूं। उन्होंने कहा--" वहां जाकर तुम क्या करोगे? वह हैं तो बहुत भले आदमी, परंतु मैं समझता हूं कि उनसे मिलकर तुम्हें संतोष न होगा। मैं उनको खूब जानता हूं। फिर भी तुम जाना चाहो तो खुशीसे जा सकते हो ।” ___मैंने कालीबाबूसे मिलने का समय मांगा। उन्होंने तुरंत समय दिया और मै मिलने गया । घरमें उनकी धर्मपत्नी मृत्युशय्यापर पड़ी हुई थी। वहां सर्वत्र सादगी फैली हुई थी। कांग्रेसमें वह कोट-पतलून पहने हुए थ, पर घरमें बंगाली धोती व कुरता पहने हुए देखा। यह सादगी मुझे भाई। उस समय यद्यपि मैं पारसी कोट-पतलून पहने हुए था, तथापि उनकी पोशाक और सादगी मुझे बहुत ही प्रिय लगी। मैंने और बातोंमें उनका समय न लेकर अपनी उलझन उनके सामने पेश की। ___ उन्होंने मुझसे पूछा--"आप यह बात मानते हैं या नहीं कि हम अपने पापोंको साथ लेकर जन्म पाते हैं ?" मैंने उत्तर दिया--" हां, जरूर ।” " तो इस मूल पापके निवारणका उपाय हिंदू-धर्ममें नहीं, ईसाई-धर्ममें . *het.
SR No.100001
Book TitleAtmakatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohandas Karamchand Gandhi, Gandhiji
PublisherSasta Sahitya Mandal Delhi
Publication Year1948
Total Pages518
LanguageHindi
ClassificationInterfaith & Interfaith
File Size70 MB
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