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________________ अध्याय १२ : देश-गमन २२३ प्रेमसे दी है उन्हें वापस लौटाना ठीक नहीं।" इस प्रकार वाग्धारा शुरू हुई और उसके साथ अश्रुधारा पा मिली। लड़के दृढ़ रहे और मैं भला क्यों डिगने लगा ? ___ मैंने धीरेसे कहा--"पहले लड़कोंकी शादी तो हो लेने दो। हम बचपन में तो इनके विवाह करना चाहते ही नहीं हैं। बड़े होनेपर जो इनका जी चाहे सो करें। फिर हमें क्या गहनों-कपड़ोंकी शौकीन बहुएं खोजनी हैं ? फिर भी अगर कुछ बनवाना ही होगा तो मैं कहां चला गया हूं?" "हां, जानती हूं तुमको। वही न हो, जिन्होंने मेरे भी गहने उतरवा लिये हैं। जब मुझे ही नहीं पहनने देते हो तो मेरी बहुअोंको जरूर ला दोगे ! लड़कोंको तो अभीसे बैरागी बना रहे हो। इन गहनोंको मैं वापस नहीं देने दूंगी। और फिर मेरे हारपर तुम्हारा क्या हक ? " पर यह हार तुम्हारी सेवाकी खातिर मिला है या मेरी ? " मैंने पूछा। "जैसा भी हो। तुम्हारी सेवामें क्या मेरी सेवा नहीं है ? मुझसे जो रात-दिन मजूरी कराते हो, क्या वह सेवा नहीं है ? मुझे रुला-रुलाकर जो ऐरेगैरोंको घरमें रखा और मुझसे सेवा-टहल कराई, वह कुछ भी नहीं ?" ये सब बाण तीखे थे। कितने ही तो मुझे चुभ रहे थे। पर गहने वापस लौटाने का मैं निश्चय ही कर चुका था। अंतको बहुतेरी बातोंमें मैं जैसे-तैसे सम्मति प्राप्त कर सका। १८९६ और १९०१में मिली भेटें लौटाई । उनका ट्रस्ट बनाया गया और लोक-सेवाके लिए उसका उपयोग मेरी अथवा ट्रस्टियोंकी इच्छाके अनुसार होनेकी शर्तपर वह रकम बैंकमें रक्खी गई। इन चीजोंको बेचनेके निमित्तसे मैं बहुत बार रुपया एकत्र कर सका हूं। आपत्ति-कोषके रूपमें वह रकम आज मौजूद है और उसमें वृद्धि होती जाती है। . इस बातके लिए मुझे कभी पश्चात्ताप नहीं हुआ। आगे चलकर कस्तूर बाईको भी उसका और औचित्य जंचने लगा। इस तरह हम अपने जीवनमें बहुतेरे लालचोंसे बच गये हैं। मेरा यह निश्चित मत हो गया है कि लोक-सेवकको जो भेटें मिलती हैं, वे उसकी निजी चीज कदापि नहीं हो सकतीं ।
SR No.100001
Book TitleAtmakatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohandas Karamchand Gandhi, Gandhiji
PublisherSasta Sahitya Mandal Delhi
Publication Year1948
Total Pages518
LanguageHindi
ClassificationInterfaith & Interfaith
File Size70 MB
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