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अध्याय ६ : सादगी
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सादगी
भोग भोगनेका आरंभ तो मैंने किया; पर यह टिक न सका। टीमटामकी साधन-सामग्री मैंने जुटाई तो; परंतु उसके मोहमें मैं नहीं फंसा था। इसलिए एक और घर-गृहस्थी बनाते ही मैंने दूसरी ओर खर्च कम करनेकी शुरूयात की। धुलाईका खर्च भी ज्यादा मालूम हुआ । फिर धोबी नियमित रूपसे कपड़े न लाता, इस कारण दो-तीन दर्जन कमीज और इतने ही कालरसे भी काम न चलता। कालर रोज बदला जाता था; कमीज रोज नहीं तो तीसरे दिन जरूर बदलनी पड़ती। इस तरह दोहरा खर्च लगता । यह मुझे व्यर्थ मालूम हुआ। इसलिए घर पर ही धोनेकी चीजें मंगाई। धुलाई-विद्याकी पुस्तक पढ़कर धोना सीख लिया और पत्नीको भी सिखा दिया। इससे कामका कुछ बोझ तो बढ़ा; पर एक नई चीज थी, इसलिए मनोविनोद भी होता ।
पहले-पहल जो कालर मैंने धोया उसे मैं कभी न भूल सकूँगा। इसमें कलप ज्यादा था, और इस्तिरी पूरी गरम न थी। फिर कालरके जल जानेके भयसे इस्तिरी ठीक-ठीक दबाई नहीं गई थी। इस कारण कालर कड़ा तो हो गया; पर उसमेंसे कलप झिरता रहता था ।
ऐसा ही कालर लगाकर मैं अदालतमें गया और वहां बैरिस्टरोंके मजाकका साधन बन गया; परंतु ऐसी हंसी-दिल्लगीको सहन करनेकी क्षमता मुझमें उस समय भी कम न थी।
___ "कालर हाथसे धोनेका यह पहला प्रयोग है, इसलिए उसमेंसे कलप झिर रहा है; पर मेरा इसमें कुछ हर्ज नहीं होता। फिर आप सब लोगोंके इतने विनोदका कारण हुआ यह विशेष बात है।" मैंने स्पष्टीकरण किया।
" पर धोबी क्या नहीं मिलते ? " एक मित्रने पूछा ।
" यहां धोबीका खर्च मुझे नागवार हो रहा है। कालरकी कीमतके बराबर धुलाईका खर्च---और फिर भी धोबीकी गुलामी बरदाश्त करनी पड़ती है, सो जुदी । इसके बनिस्बत तो मैं घरपर हाथसे धो लेना ही ज्यादा पसंद करता