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________________ अध्याय ३ : कसौटी मुझे उसका अनुभव यह पहली ही बार होनेवाला था। पर छोकरे क्यों बैठने देने लगे? उन्होंने रिक्शा वालेको धमकाकर भगा दिया । हम आगे चले । भीड़ भी बढ़ती जाती थी। काफी मजमा हो गया। सबसे पहले तो भीड़ने मुझे मि० लाटनसे अलग कर दिया। फिर मुझपर कंकड़ और सड़े अंडे बरसने लगे। किसीने मेरी पगड़ी भी गिरा दी और मुझे लातें लगनी शुरू हुई । ___ मुझे गश पा गया। नजदीकके वरके सींखचेको पकड़कर मैने सांस लिया। खड़ा रहना तो असंभव ही था। अब थप्पड़ भी पड़ने लगे। इतने में ही पुलिस सुपरिन्टेंडेंटकी पत्नी जो मुझ जानती थीं, उधर होकर निकलीं। मुझे देखते ही वह मेरे पास आ खड़ी हुईं, और धूपके न रहते हुए भी अपना छाता मुझपर तान दिया। इससे भीड़ कुछ दबी। अव अगर वे चोट करते भी तो श्रीमती अलेकजेंडरको बचाकर ही कर सकते थे। इसी बीच कोई हिंदुस्तानी, मुझपर हमला होता हुआ देख, पुलिस थानेपर दौड़ गया । सुपरिन्टेंडेंट अलेकजेंडरने पुलिसकी एक टुकड़ी मुझे बचानेके लिए भेजी। वह समयपर आ पहुंची। मेरा रास्ता पुलिसचौकीसे ही होकर गुजरता था। सुपरिन्टेंडेंटने मुझे थानेमें ठहर जानेको कहा। मैंने इन्कार कर दिया कहा-" जब लोग अपनी भूल समझ लेंगे तब शांत हो जायंगे। मुझे उनकी न्याय-बुद्धिपर विश्वास है ।” पुलिसकी रक्षामें मैं सही-सलामत पारसी रुस्तमजी के घर पहुंचा। पीठपर मुझे अंदरूनी चोट पहुंची थी। जख्म सिर्फ एक ही जगह हुआ था । जहाजके डाक्टर दादी बरजोर वहीं मौजूद थे। उन्होंने मेरी अच्छी तरह सेवा-सुथना की। इस तरह जहां अंदर शांति थी, वहां बाहरसे गोरोंने घरको घेर लिया। शाम हो गई थी। अंधेरा हो गया था। हजारों लोग बाहर शोर मचा रहे थे और पुकार रहे थे---" गांधीको हमारे हवाले कर दो।" मामला संगीन देखकर सुपरिन्टेंडेंट अलेकजेंडर वहां पहुंच गये थे और भीड़को डरा-धमकाकर नहीं; बल्कि हंसी-मजाक करते हुए काबूमें रख रहे थे । फिर भी वह चिंतामुक्त न थे। उन्होंने मुझे इस आशयका संदेश भेजा-- "यदि आप अपने मित्रके जान-मालको, मकानको तथा अपने बाल-बच्चोंको
SR No.100001
Book TitleAtmakatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohandas Karamchand Gandhi, Gandhiji
PublisherSasta Sahitya Mandal Delhi
Publication Year1948
Total Pages518
LanguageHindi
ClassificationInterfaith & Interfaith
File Size70 MB
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