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________________ अध्याय २७ : बंबईमें सभा १७९ किया। सर फिरोजशाह मुझे उत्साहित करते जाते-- 'हां, जरा और ऊंची आवाजमें ! ' ज्यों-ज्यों वह ऐसा कहते त्यों-त्यों मेरी आवाज गिरती जाती थी। ___ मेरे पुराने मित्र केशवराव देशपांडे मेरी मददके लिए दौड़े। मैंने उनके हाथमें भाषण सौंपकर छुट्टी पाई। उनकी आवाज थी तो बुलंद; पर प्रेक्षक क्यों सुनने लगे ? ‘वाच्छा', 'वाच्छा की पुकारसे हाल गूंज उठा। अब वाच्छा उठे। उन्होंने देशपांडेके हाथसे कागज लिया और मेरा काम बन गया। सभामें तुरंत सन्नाटा छा गया और लोगोंने 'अथसे इतितक' भाषण सुना। मामूलके मुताबिक प्रसंगानुसार 'शर्म', 'शर्म' की अथवा करतल-ध्वनि हुई। सभाके इस फलसे मैं खुश हुआ। सर फिरोजशाहको भाषण पसंद आया। मुझे गंगा नहानेके बराबर संतोष हुआ। इस सभाके फल-स्वरूप देशपांडे तथा एक पारसी सज्जन ललचाये। पारसी सज्जन आज एक पदाधिकारी हैं, इसलिए उनका नाम प्रकट करते हए हिचकता हूं। जज खुरशेदजीने उनके निश्चयको डांवाडोल कर दिया। उसकी तहमें एक पारसी बहन थी। विवाह करें या दक्षिण अफ्रीका जायं? यह समस्या उनके सामने थी। अंतको विवाह कर लेना ही उन्होंने अधिक उचित समझा, परंतु इन पारसी मित्रकी तरफसे पारसी रुस्तमजीने इसका प्रायश्चित्त किया। और उस पारसी बहनकी ओरसे दूसरी पारसी बहनें, सेविका बनकर, खादीके लिए वैराग्य लेकर, प्रायश्चित्त कर रही हैं। इस कारण इस दंपतीको मैंने माफ कर दिया है । देशपांडेको विवाहका प्रलोभन तो न था; पर वह भी न आ सके । इसका प्रायश्चित्त अब वह खुद ही कर रहे हैं। लौटती बार रास्तेमें जंजीबार पड़ता था। वहां एक तैयबजीसे मुलाकात हुई । उन्होंने भी आने की आशा दिलाई थी; पर वे भला दक्षिण अफ्रिका क्यों आने लगे ? उनके न आनेके गुनाहका बदला अब्बास तैयबजी चुका रहे हैं; परंतु बैरिस्टर मित्रोंको दक्षिण अफ्रीका आनेके लिए लुभानेके मेरे प्रयत्न इस तरह विफल हुए । यहां मुझे पेस्तनजी पादशाह याद आते हैं। विलायतसे ही उनका मेरा मधुर संबंध हो गया था। पेस्तनजीसे मेरा परिचय लंदनके अन्नाहारी
SR No.100001
Book TitleAtmakatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohandas Karamchand Gandhi, Gandhiji
PublisherSasta Sahitya Mandal Delhi
Publication Year1948
Total Pages518
LanguageHindi
ClassificationInterfaith & Interfaith
File Size70 MB
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