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आत्म-कथा : भाग २
यह भाव मुझे खटका । अपने मित्र डा० बूथ के सामने मैंने अपनी कठिनाई पेश की। उन्होंने भी स्वीकार किया कि हां, अहिंसावादी मनुष्यको यह गान शोभा नहीं देता । जिन्हें हम शत्रु कहते हैं, वे दगाबाजी ही करते हैं, यह कैसे मान लें ? यह कैसे कह सकते हैं कि जिन्हें हमने शत्रु मान लिया है वे सब बुरे ही हैं । ईश्वरसे तो हम न्यायकी ही याचना कर सकते हैं । डा० बूथको यह दलील जंची । उन्होंने अपने समाज में गानेके लिए एक नये ही गीतकी रचना की । डा० बूथका विशेष परिचय आगे दूंगा ।
जिस प्रकार वफादारीका स्वाभाविक गुण मुझमें था, उसी तरह शुश्रूषाका भी था। बीमारोंकी सेवा-शुश्रूषाका शौक, फिर बीमार चाहे अपने हों या पराये, मुझे था । राजकोटमें दक्षिण अफरीका-संबंधी काम करते हुए मैं एक बार बंबई गया । इरादा यह था कि बड़े-बड़े शहरोंमें सभायें करके लोकमत विशेष रूपसे तैयार किया जाय । इसी सिलसिले में मैं बंबई गया था । पहले न्यायमूर्ति रानडेसे मिला। उन्होंने मेरी बात ध्यानसे सुनी और सर फिरोजशाहसे मिलने की सलाह दी। फिर मैं जस्टिस बदरुद्दीन तैयबजीसे मिला। उन्होंने भी मेरी बात सुनकर यही सलाह दी । 'जस्टिस रानडेसे और मुझसे आपको बहुत कम सहायता मिल सकेगी । हमारी स्थिति आप जानते हैं । हम सार्वजनिक कामोंमें योग नहीं दे सकते; परंतु हमारे मनोभाव और सहानुभूति प्रापके साथ हुई है । हां, सर फिरोजशाह आपकी सच्ची सहायता करेंगे ।'
सर फिरोजशाहसे तो मैं मिलने ही वाला था । परंतु इन दो बुजुर्गोंकी यह राय जानकर कि उनकी सलाहसे चलो, मुझे इस बातका ज्ञान हुआ कि सर फिरोजशाहका कितना अधिकार लोगोंपर है ।
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मैं सर फिरोजशाहसे मिला । मैं उनसे चकाचौंध होनेके लिए तैयार ही था । उनके नामके साथ लगे बड़े-बड़े विशेषण मैंने सुन रक्खे थे । 'बंबईके शेर', 'बंबईके बेताज बादशाह से मिलना था परंतु बादशाहने मुझे भयभीत नहीं किया । जिस प्रकार पिता अपने जवान पुत्र प्रेम के साथ मिलता है, उसी प्रकार वह मुझसे मिले । उनके चेंबर में उनसे मिलना था । अनुयायियोंसे तो सदा घिरे हुए रहते ही थे । वाच्छा थे; कामा थे । उनसे मेरा परिचय कराया वाच्छाका नाम मैंने सुना था, वह फिरोजशाह के दाहिने हाथ माने जाते थे । अंक