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आत्म-कथा : भाग २
धन लेना है। यदि मैं अपने लिए रुपया लेने लगू तो आपसे बड़ी-बड़ी रकमें लेते हुए मुझे संकोच होगा, और अपनी गाड़ी रुक जायगी। लोगोंसे तो मैं हर साल ३०० पौंडसे अधिक ही खर्च करा दूंगा।" मैंने उत्तर दिया।
"पर हम तो आपको अब अच्छी तरह जान गये हैं। आप अपने लिए थोड़े ही चाहते हैं। आपके रहनेका खर्चा तो हमी लोगोंको न देना चाहिए ? "
“यह तो आपका स्नेह और तात्कालिक उत्साह आपसे कहलवा रहा है। यह कैसे मान लें कि यही उत्साह सदा कायम रह सकेगा ? मुझे तो आपको कभी कड़वी बात भी कहनी पड़ेंगी। उस समय भी मैं आपके स्नेहका पात्र रह सकूँगा या नहीं, सो ईश्वर जाने; पर असली बात यह है कि सार्वजनिक-कामके लिए रुपया-पैसा मैं न लूं। आप लोग सिर्फ अपने मामले मुकदमे मुझे देते रहनेका वचन दें तो मेरे लिए काफी है। यह भी शायद आपको भारी मालूम होगा; क्योंकि मैं कोई गोरा बैरिस्टर तो हूं नहीं, और यह भी पता नहीं कि अदालत मुझ-जैसेको दाद देगी या नहीं। यह भी नहीं कह सकता कि पैरवी कैसी कर सकंगा। इसलिए मुझे पहलेसे मेहनताना देने में भी आपको जोखिम उठानी पड़ेगी। और इतनेपर भी यदि आप मुझे मेहनताना दें तो यह तो मेरी सेवाओंकी बदौलत ही न होगा?
इस चर्चाका नतीजा यह निकला कि कोई २० व्यापारियोंने मिलकर मेरे एक वर्षकी आयका प्रबंध कर दिया। इसके अलावा दादा अब्दुल्ला बिदाईके समय मुझे जो रकम भेंट करनेवाले थे उसके बदले उन्होंने मुझे श्रावश्यक फर्नीचर ला दिया और मैं नेटालमें रह गया।
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वर्ण-द्वेष अदालतोंका चिह्न है तराजू । उसे पकड़ रखनेवाली एक निष्पक्ष, अंधी, परंतु समझदार बुढ़िया है। उसे विधाताने अंधा बनाया है कि जिससे वह मुंह देखकर तिलक न लगावे; बल्कि योग्यताको देखकर लगावे। इसके विपरीत, नेटालकी अदालतसे तो मुंह देखकर तिलक लगवानेके लिए वहांकी