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________________ आत्म-कथा : भाग २ १३० बड़ गई है; क्योंकि मुट्ठी भर हिंदुस्तानियोंके रहन-सहन से लोग करोड़ों भारतवासियोंका अंदाजा लगाते हैं । मैने देख लिया था कि अंग्रेजोंके रहन-सहाके मुकाबलेमें हिंदुस्तानी गंदे रहते हैं और उनको मैंने यह त्रुटि दिखाई हिंदू, मुसलमान, पारसी, ईसाई अथवा गुजराती, मदरासी, पंजाबी, सिंधी, कच्छी, सूरती इत्यादि भेदोंको भुला देने पर जोर दिया। और अंतको यह सूचित किया कि एक मंडलकी स्थापना करके भारतीयोंके कष्टों और दुःखों का इलाज अधिकारियोंसे मिलकर, प्रार्थना-पत्र आदिके द्वारा, करना चाहिए। और अपनी तरफ से यह कहा कि इसके लिए मुझे जितना समय मिल सकेगा बिना वेतन देता रहूंगा । मैंने देखा कि सभापर इसका अच्छा असर हुआ । चर्चा हुई। कितनोंने ही कहा कि हम हकीकतें ला- लाकर देंगे । मुझे हिम्मत आई । मैंने देखा कि सभामें अंग्रेजी जाननेवाले कम थे। मुझे लगा कि ऐसे प्रदेश में यदि अंग्रेजीका ज्ञान अधिक हो तो अच्छा, इसलिए मैंने कहा कि जिन्हें हो उन्हें अंग्रेजी सीख लेनी चाहिए। बड़ी उम्र में भी चाहें तो पढ़ सकते हैं, यह कहकर उन लोगोंकी मिसालें दीं जिन्होंने प्रौढ़ावस्था में पढ़ा था | कहा कि यदि कुछ लोग या एक वर्ग जितने लोग पढ़ना चाहें तो मैं पढ़ानेको तैयार हूं । वर्ग तो निकला परंतु तीन शख्स अपनी सुविधासे व उनके घर जाकर पढ़ाऊं तो पढ़नेके लिए तैयार हुए। इनमें दो मुसलमान थे, एक नाई था और एक था कारकुन । एक हिंदू छोटा-सा दुकानदार था। मैं सबकी सुविधाके अनुकूल हुआ | M पढ़ाने की योग्यता और क्षमताके संबंध में तो मुझे अविश्वास था ही नहीं । मेरे शिष्य भले ही थक गये हों; पर मैं न थका । कभी उनके घर जाता तो उन्हें फुरसत नहीं रहती । मैंने धीरज न छोड़ा। किसीको अंग्रेजीका पंडित तो होना हो न था; परंतु दो विद्यार्थियोंने कोई आठ मासमें अच्छी प्रगति कर ली। दोनोंने बहीखातेका तथा चिट्ठीपत्री लिखनेका ज्ञान प्राप्त कर लिया । नाईको तो इतना ही पढ़ना था कि वह अपने ग्राहकोंसे बातचीत कर सके । दो आदमी इस पढ़ाईकी बदौलत ठीक कमानेका भी सामर्थ्य प्राप्त कर सके । सभा के परिणामसे मुझे संतोष हुआ। ऐसी सभा हर मास अथवा हर
SR No.100001
Book TitleAtmakatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohandas Karamchand Gandhi, Gandhiji
PublisherSasta Sahitya Mandal Delhi
Publication Year1948
Total Pages518
LanguageHindi
ClassificationInterfaith & Interfaith
File Size70 MB
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