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आत्म-कथा : भाग २
भी रहे। काम या तो कारकुनीका था या मुकदमेका तीसरा था नहीं । ऐसी हालत में यदि मुकदमेका काम मुझे नहीं सौंपते हैं तो घर बैठे मेरा खर्च उठाना
पड़ता था ।
अब्दुल्ला सेठ पढ़े-लिखे बहुत कम थे । अक्षर ज्ञान कम था; पर अनुभवज्ञान बहुत बढ़ा-चढ़ा था। उनकी बुद्धि तेज थी; और वह खुद भी इस बातको जानते थे । रफ्त से अंग्रेजी इतनी जान ली थी कि बोलचालका काम चला लेते । परंतु इतनी अंग्रेजी के बलपर वह अपना सारा काम निकाल लेते थे । बैंक में मैनेजरोंसे बातें कर लेते, यूरोपियन व्यापारियोंसे सौदा कर लेते, वकीलोंको अपना मामला समझा देते। हिंदुस्तानियोंमें उनका काफी मान था । उनकी पेढ़ी उस समय हिंदुस्तानियोंमें सबसे बड़ी नहीं तो, बड़ी पेढ़ियोंमें अवश्य थी । उनका स्वभाव हमी था ।
वह इस्लामका बड़ा अभिमान रखते थे | तत्वज्ञानकी वार्ता के शौकीन थे । अरबी नहीं जानते थे । फिर भी कुरान शरीफ तथा आमतौरपर इस्लामी - धर्म-साहित्यकी वाकफियत उन्हें अच्छी थी । दृष्टांत तो जबानपर हाजिर रहते थे । उनके सहवाससे मुझे इस्लामका अच्छा व्यावहारिक ज्ञान हुआ। जब हम एक-दूसरेको जान-पहचान गये, तब वह मेरे साथ बहुत धर्म-चर्चा किया करते । दूसरे या तीसरे दिन मुझे डरबन अदालत दिखाने ले गये । यहां कितने ही लोगों से परिचय कराया। अदालत में अपने वकीलके पास मुझे बिठाया । मजिस्ट्रेट मेरे मुंहकी घोर देखता रहा । उसने कहा-- अपनी पगड़ी उतार लो। " मैंने इन्कार किया और अदालत से बाहर चला आया ।
मेरे नसीब में तो यहां भी लड़ाई लिखी थी ।
पगड़ी उतरवाने का रहस्य मुझे अब्दुल्ला सेठने समझाया । मुसलमानी लिबास पहननेवाला अपनी मुसलमानी पगड़ी यहां पहन सकता है दूसरे भारतवासियोंको अदालत में जाते हुए अपनी पगड़ी उतार लेनी चाहिए ।
इस सूक्ष्म-भेदको समझाने के लिए यहां कुछ बातें विस्तारके साथ लिखनी
होंगी । मैंने इन दो-तीन दिन में ही यहां देख लिया था कि हिंदुस्तानियोंने यहां अपने-अपने गिरोह बना लिये थे । एक गिरोह था मुसलमान व्यापारियोंका --
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