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________________ एक छोटा-सा अपना अनुभव यहां लिख देता हूं। मेरा मकान गिरगांव में था। फिर भी कभी-कभी ही गाड़ी किराये करता। ट्राममें भी मुश्किलसे बैठता। गिरगांवसे नियम-पूर्वक बहुत करके पैदल ही, जाता। उसमें खासे ४५ मिनट लगते । लौटता भी बिला नागा पैदल ही। दिनमें धूप सहनेकी आदत डाल ली थी। इससे मैंने खर्च में किफायत भी बहुत की और मैं एक दिन भी वहां बीमार न पड़ा, हालांकि मेरे साथी बीमार होते रहते थे। जब मैं कमाने लगा था, तब भी मैं पैदल ही आफिस जाता । उसका लाभ मैं आजतक पा रहा हूं। पहला आघात बंबईसे निराश होकर राजकोट गया। अलहदा दफ्तर खोला। कुछ सिलसिला चला। अर्जियां लिखनेका काम मिलने लगा और प्रतिमास लगभग ३००) की आमदनी होने लगी। इन अर्जियोंके मिलनेका कारण मेरी योग्यता नहीं बल्कि जरिया था। बड़े भाई साहबके साथी वकीलकी वकालत अच्छी चलती थी। जो बहुत जरूरी अर्जियां आती अथवा जिन्हें वे महत्वपूर्ण समझते वे तो बैरिस्टर के पास जातीं, मुझे तो सिर्फ उनके गरीब मवक्किलोंकी अजियां मिलतीं । । ...बंबईवाली कमीशन न देनेकी मेरी टेक यहां न निभ सकी। वहां और यहांकी स्थितिका भेद मुझे समझाया गया--बंबईमें तो दलालको कमीशन देनेकी बात थी। यहां वकीलको देनेकी बात है। मुझसे कहा गया कि बंबईकी तरह यहां भी तमाम बैरिस्टर, बिना अपवादके, कुछ-न-कुछ कमीशन अवश्य दिया करते हैं। भाई साहबकी दलीलका उत्तर मेरे पास न था। 'तुम देखते हो कि मैं एक दूसरे वकीलका साझी हूं। मेरे पास आनेवाले मुकदमोंमेंसे तुम्हारे लायक मुकदमे तुम्हें देनेकी ओर मेरी प्रवृत्ति स्वभावतः रहती है और यदि तुम अपनी फीसका कुछ अंश मेरे साझीको न दो तो मेरी स्थिति कितनी विषम हो सकती है ? हम तो एक साथ रहते हैं, इसलिए मुझे तो तुम्हारी फीसका लाभ मिल ही जाता
SR No.100001
Book TitleAtmakatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohandas Karamchand Gandhi, Gandhiji
PublisherSasta Sahitya Mandal Delhi
Publication Year1948
Total Pages518
LanguageHindi
ClassificationInterfaith & Interfaith
File Size70 MB
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