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________________ आत्म-कथा: भाग २ मैने साफ इन्कार कर दिया । "परंतु फौजदारी अदालतके नामी वकील भी तो कमीशन देते हैं, जोकि तीन-चार हजार महीना कमा लेते हैं।' “मुझे उनकी बराबरी नहीं करना । मुझे तो ३००) मासिक मिल जायं तो बस । पिताजीको कहां इससे ज्यादा मिलते थे ?" " पर वह जमाना निकल गया । बंबईका खर्च कितना है ? जरा व्यवहारकी वातोंको भी देखना चाहिए।" पर मैं टस-से-मस न हुआ। कमीशन बिलकुल न देने दिया । ममीबाईका मुकदमा तो मिला ही। मुकदमा था आसान । मुझे ३०) मिहनताना मिला था। एक दिनमे ज्यादाका काम न था । स्माल काज कोर्ट में पहले-पहल मैं पैरवी करने गया। मैं मुद्दालेकी तरफसे था, इसलिए मुझे जिरह करनी थी। मैं खड़ा हुआ; पर पैर कांपने लगे, सिर घूमने लगा। मुझे मालूम हुआ कि सारी अदालत घूम रही है। सवाल क्या पूछं, यह सूझ नहीं पड़ता था। जज हंसा होगा। वकीलोंको तो मजा आया ही होगा। पर उस समय मेरी आंखें यह सव कहां देख सकती थीं ? ___ मैं बैठ गया। दलालसे कहा कि मैं इस मामलेकी पैरवी न कर सकंगा। तुम पटेलको वकालतनामा दे दो और अपनी यह फीस वापस ले लो। उसी दिन ५१) देकर पटेल साहबसे तय कर दिया। उनके लिए तो यह बायें हाथका खेल था। मैं वहांसे सटका। पता नहीं, मवक्किल हारा या जीता । मैं वड़ा लज्जित हुआ। निश्चय किया कि जबतक पूरी-पूरी हिम्मत न पाजाय, तबतक कोई मुकदमा न लूंगा। और दक्षिण अफ्रीका जानेतक अदालतमें न गया । इस निश्चयमें कोई बल न था। हारनेके लिए कौन अपना मुकदमा मुझे देता ? अत: मेरे इस निश्चयके बिना भी कोई मुझे पैरवी करने आनेका कष्ट न देता। पर बंबईमें अभी एक और मुकदमा मिलना बाकी था। इसमें सिर्फ अर्जी लिखनी थी। एक मुसलमानकी जमीन पोरबंदरमें जब्त हो गई थी। मेरे पिताका नाम वह जानता था । और इसलिए वह उनके बैरिस्टर पुत्रके पास पाया था। मुझे उसका मामला कमजोर मालूम हुआ, परंतु मैंने अर्जी लिख देना मंजूर कर लिया। छपाईका खर्च मवक्किलसे ठहराकर मैने अर्जी तैयार
SR No.100001
Book TitleAtmakatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohandas Karamchand Gandhi, Gandhiji
PublisherSasta Sahitya Mandal Delhi
Publication Year1948
Total Pages518
LanguageHindi
ClassificationInterfaith & Interfaith
File Size70 MB
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