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अकाण्डेछेदः
अङ्कः
अकाण्डेछेदः - एक काव्यदोष । जब रस अपने पूर्ण परिपाक पर हो, उसे अचानक विच्छिन्न कर देना अकाण्डेछेदः नामक काव्यदोष है । यथा, म.च. के द्वितीयाङ्क में राम और परशुराम के संवाद मे वीर रस के चरमोत्कर्ष पर पहुँचने पर रामचन्द्र का यह कथन " कङ्कणमोचनाय गच्छामि " । यह रसदोष है। (7/6)
अकाण्डेप्रथनम् - एक काव्यदोष । विना अवसर के रस का प्रतिपादन अकाण्डेप्रथनम् नामक काव्यदोष है। यथा, वे.सं. के द्वितीयाङ्क में अनेक वीरों के क्षयकारक युद्ध में प्रवृत्त होने पर दुर्योधन का भानुमती के साथ शृङ्गारप्रदर्शन। यह रसदोष है। (7/6)
अक्रमत्वम् - एक काव्यदोष । जहाँ प्रयुक्त किये गये शब्दों का क्रम उचित न हो। यथा, समय एव करोति बलाबलं प्रणिगदन्त इतीव शरीरिणाम् । शरदि हंसरवाः परुषीकृतस्वरमयूरमयू रमणीयताम् । । यहाँ 'समय एव करोति बलाबलम्' इस पंक्ति का 'इति' पद से परामर्श होता है, अत: इसी के अनन्तर इस पद का प्रयोग होना चाहिए था परन्तु यह 'प्रणिगदन्तः ' पद के पश्चात् प्रयुक्त है। इसी प्रकार कु.स. के प्रसिद्ध पद्य, द्वयं गतं सम्प्रति शोचनीयतां समागमप्रार्थनया पिनाकिनः । कला च सा कान्तिमती कलावतस्त्वमस्य लोकस्य च नेत्रकौमुदी।। में कलावान् के साथ 'त्वम्' पद का समुच्चय है, लोक का नहीं। अत: 'च' पद 'त्वम्' के अनन्तर आना चाहिए। यह वाक्यदोष है। (7/4)
अक्षमा- एक नाट्यालङ्कार । स्वल्प तिरस्कार को भी सहन न करना -अक्षमा सा परिभवः स्वल्पोऽपि न विषह्यते । अ.शा. के पञ्चमाङ्क में शकुन्तला के प्रत्याख्यान के अनन्तर शार्ङ्गरव की उक्तियाँ इसका उदाहरण है। (6/211)
अक्षरसङ्घातः-एक नाट्यलक्षण । विचित्र अर्थ वाले परिमित शब्दों से किया गया वर्णन अक्षरसङ्घात कहा जाता है-वर्णनाक्षरसङ्घातश्चित्रार्थैरक्षरैर्मितैः
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अङ्कः- रूपक का एक भेद । इसी की एक अन्य संज्ञा उत्सृष्टिकाङ्क भी है। नाटकादि में भी क्योंकि अङ्कों की योजना होती है, अत: उससे इसका