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साधारणीकरणम्
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साधारणीकरणम्
गये व्यक्ति को भी नष्ट हुए धन वाला समझकर माता अथवा किसी अन्य व्यक्ति द्वारा बाहर निकलवा देती है ( धनयुक्त होने पर पुनः संयोग की आकांक्षा से स्वयं नहीं निकालती) । चोर, नपुंसक, मूर्ख, विना परिश्रम से प्राप्त धन वाले, पाखण्डी (छद्मवेशी), प्रच्छन्न कामुक प्रायः इनके प्रिय होते हैं। काम के वशीभूत होकर यह भी कभी-कभी सत्य अनुराग से युक्त होती है परन्तु यह चाहे अनुरक्त हो अथवा विरक्त, इसमें प्रेम अत्यन्त दुर्लभ है - धीरा कलाप्रगल्भा स्याद् वेश्या सामान्यनायिका । निर्गुणानपि न द्वेष्टि न रज्यति गुणिष्वपि । वित्तमात्रं समालोक्य सा रागं दर्शयेद्बहिः। काममङ्गीकृतमपि परिक्षीणधनं नरम्। मात्रा निष्कासयेदेषा पुनः सन्धानकांक्षया । तस्कराः पुण्ड्रका मूर्खाः सुखप्राप्तधनास्तथा । लिङ्गिनश्छन्नकामाद्या आसां प्रायेण वल्लभाः । एषापि मदनायत्ता क्वापि सत्यानुरागिणी । रक्तायां वा विरक्तायां रतमस्यां सुदुर्लभम्।। रागहीन वेश्या का उदाहरण ल.मे. की मदनमञ्जरी तथा अनुरक्त वेश्या का उदाहरण वसन्तसेना आदि हैं। ( 3/84-85)
साधारणीकरणम्-विभावादि का व्यापार । आलम्बन और उद्दीपन विभाव काव्य में निबद्ध होकर स्वयं को सहृदय के साथ सम्बद्ध रूप से ही प्रकाशित करते हैं। अतएव सहृदय स्वयं को रामादि से अभिन्न ही मानने लगता है। रसास्वाद के समय विभावादि 'ये अन्य के हैं अथवा अन्य के नहीं हैं, मेरे हैं अथवा मेरे नहीं हैं', इस प्रकार परिच्छिन्न रूप में प्रतीत नहीं होते। सहृदयों में रामादि के साथ इस प्रकार का साधारण्याभिमान हो जाना ही साधारणीकरण व्यापार है। मूलरूप से विभावादिगत होने के कारण ही इसे विभावनव्यापार भी कहते हैं। इसी के बल पर साधारण मनुष्य भी हनुमदादि के समान समुद्रलङ्घनादि दुष्कर व्यापारों में उत्साहित हो जाता है।
यह साधारणीकरण रत्यादि स्थायीभावों का भी होता है क्योंकि रामादि अनुकार्य की सीतादि में रति तथा सहृदय नायक की नायिका में रति यदि साधारण न हो जाये तो शृङ्गारिक प्रसङ्गों से लज्जा, भय आदि उत्पन्न होने लगेंगे। स्वपर का भेद विद्यमान रहने से तो सहृदय और अनुकार्य दोनों का ही रतिभाव सर्वथा अरस्य हो जायेगा। इस प्रकार परम्परया काव्य अथवा नाट्य आदि भी अरसनीय हो जायेंगे। (3/9-12)