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राज कवि थे। इनका समय 10वीं शताब्दी माना गया है। भरत के नाट्यशास्त्र पर आधारित यह अलंकारशास्त्र कारिकाओं में रचा गया है। इस ग्रन्थ में प्राकृत के 26 पद्य उद्धृत हैं। ये पद्य गाथासप्तशती, कर्पूरमंजरी, रत्नावली आदि से लिये गये हैं। इस ग्रन्थ पर धनंजय के लघु भ्राता धनिक ने अवलोक नामक वृत्ति लिखी है। सरस्वतीकंठाभरण
सरस्वतीकंठाभरण के रचयिता भोजराज (ई. सन् 996-1051) मालवा की धारा नगरी के निवासी थे। इस ग्रन्थ में 331 प्राकृत पद्य उद्धृत हैं। प्राकृत गाथाएँ सेतुबंध, गाथासप्तशती, कर्पूरमंजरी आदि ग्रन्थों से उद्धृत की गई हैं। साहित्यिक सौन्दर्य की दृष्टि से सभी पद्य सरस एवं मधुर हैं। धीर पुरुषों की महत्ता का यह वर्णन दृष्टव्य है -
सच्चं गरुआ गिरिणो को भणइ, जलासवा न गंभीरा । धीरेहिं उवमाउं तहवि हु मह णात्थि उच्छाहो ॥(परिच्छेद - 4)
अर्थात् – यह सत्य है, कौन नहीं कहता कि पर्वत विशाल होते हैं, तालाब गंभीर होते हैं, किन्तु तब भी धीर पुरुषों के साथ (उनकी) उपमा देने का मेरा उत्साह नहीं होता है। श्रृंगारप्रकाश
शृंगारप्रकाश भी भोजराज द्वारा रचित अलंकारशास्त्र का प्रसिद्ध ग्रन्थ है। इस ग्रन्थ में 36 प्रकाश हैं, जिसमें से 26वाँ प्रकाश लुप्त है। कवि भोजराज ने श्रृंगार रस को सभी रसों में प्रधान रस स्वीकार किया है। ग्रन्थ में शृंगार रस प्रधान प्राकृत पद्यों का विशेष उल्लेख किया गया है।
वाग्भटालंकार
वाग्भटालंकार के कर्ता वाग्भट हैं। इनका समय लगभग वि.सं. की __ 12वीं शती माना जाता है। इस ग्रन्थ में 260 पद्य हैं जो कि पाँच परिच्छेद
में विभक्त हैं। इस ग्रन्थ में वाग्भट ने काव्य का लक्षण, काव्य के 10 गुण, चित्र, वक्रोक्ति, अनुप्रास और यमक – इन चार शब्दालंकारों, 35 अर्थालंकारों,