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ईसा की प्रारम्भिक शताब्दियों में जैन आचार्यों के लिखे गये अनेक काव्यमय कथाग्रन्थ प्राप्त होते हैं, जिनमें तरंगवतीकहा, वसुदेवहिंडी, धूर्त्ताख्यान, कुवलयमाला आदि प्रमुख हैं। ये सभी कथाग्रन्थ रस एवं अलंकारों से ओतपोत हैं। आठवीं शताब्दी के आचार्य हरिभद्रसूरि ने अपने ग्रन्थ में कहा है कि सूत्र 32 दोषों से मुक्त और "छवि' अलंकार से युक्त होना चाहिए । अर्थात् सूत्र की भाषा शब्दालंकार एवं अर्थालंकार से विभूषित होनी चाहिए । आठवीं शताब्दी के कवि पुष्पदंत की रचनाओं में भी काव्य तत्त्व प्रचुरता से विद्यमान दिखाई देते हैं। इससे स्पष्ट होता है कि जैन- आचार्यों को अलंकारशास्त्रों के बारे में पर्याप्त जानकारी थी, लेकिन नवीं शताब्दी से पूर्व जैन साहित्य में स्वतंत्र रूप से किसी अलंकारशास्त्र की रचना हुई ऐसी जानकारी नहीं मिलती है। नवीं शताब्दी के आचार्य बप्पभट्टिसूरि रचित कवि - शिक्षा नामक रचना का उल्लेख मिलता है किन्तु यह उपलब्ध नहीं है। प्राकृत भाषा में रचित एक मात्र कृति अलंकारदर्पण प्राप्त है। आचार्य रत्नप्रभसूरि रचित नेमिनाथचरित में भी अलंकारशास्त्र की चर्चा प्राप्त होती है । इसी प्रकार अन्य जैन विषयों से सम्बन्धित ग्रन्थों में प्रसंगवश अलंकार एवं रस विषयक उल्लेख मिलते हैं। इसके अतिरिक्त जैनेतर विद्वानों की कृतियों पर भी अनेक जैनाचार्यों ने व्याख्या ग्रन्थ लिखे है । ये ग्रन्थ जैन विद्वानों के गहन पाण्डित्य के परिचायक हैं ।
अलंकारदर्पण ( अलंकारदप्पण)
अलंकारदर्पण प्राकृत भाषा में अलंकार विषय पर लिखा गया एक मात्र स्वतन्त्र ग्रन्थ है। इसमें 134 गाथाएँ हैं । अलंकारों के लक्षण, उदाहरण, काव्य-प्रयोजन आदि विषयों पर प्राकृत भाषा में पद्य लिखे गये हैं । यह ग्रन्थ संक्षिप्त होने पर भी अलंकार-ग्रन्थों में अति प्राचीन उपयोगी ग्रन्थ है । इसके कवि अज्ञात है । रचना काल निश्चित नहीं है। 12वीं शताब्दी की इस ग्रन्थ की एक प्रति प्राप्त हुई है, उसके आधार पर कि इसका रचनाकाल 12वीं शताब्दी के पूर्व में ही मानना समीचीन होगा।
काव्यादर्श
काव्यादर्श के रचयिता आचार्य दण्डी अलंकारशास्त्र जगत के
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