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________________ चरित काव्य है, जिसमें भगवान् पार्श्वनाथ के असाधारण पुरुषार्थ का स्वाभाविक विकास उद्घाटित हुआ है । कमठ के जीव द्वारा निरन्तर परीषह किये जाने पर भी वे संयम में दृढ़ रहते हैं तथा उनके मन में किसी भी प्रकार की प्रतिशोध की ज्वाला प्रज्वलित नहीं होती है। नायक के चरित में सहिष्णुता के गुण की बेजोड़ पराकाष्ठा इस चरितकाव्य को पुराणों के नजदीक लाकर खड़ा करती है। प्रसंगवश इस काव्य में तंत्र-मंत्र की विविध साधनाएँ भी वर्णित हैं । रचयिता ने इन साधनाओं का खंडन कर सम्यक् चरित की प्रतिष्ठा करते हुए कहा है कि राग, द्वेष एवं मोह का त्याग करके ही साधक का चरित निर्मल बनता है । महावीरचरियं महावीरचरित गुणचन्द्रगणि की उत्कृष्ट रचना है। इसका रचना काल वि.सं. 1139 है । गद्य-पद्य मिश्रित इस चरितकाव्य में अन्तिम तीर्थकर भगवान् महावीर के आदर्श जीवन को सरस व काव्यमय शैली में प्रस्तुत किया गया है। इस काव्य-ग्रन्थ में 8 सर्ग हैं। प्रथम चार में नायक के पूर्वभवों का एवं शेष चार में वर्तमान भव का वर्णन है। काव्यकार ने धार्मिक सिद्धान्तों के निरूपण, तत्त्वनिर्णय व दर्शन के गूढ़ रहस्यों को स्पष्ट करने हेतु नायक के जीवन की विभिन्न घटनाओं का विश्लेषण धार्मिक वातावरण में प्रस्तुत किया है। मारीच के भव के कृत्य, वर्धमान की बाल-क्रीड़ाएँ, लेखशाला में प्रदर्शित बुद्धि कौशल, विभिन्न उपसर्ग, गोशालक का आख्यान आदि घटनाओं के वर्णन द्वारा तीर्थकर महावीर के चरित को अनेक उतार-चढ़ाव के साथ विकसित किया गया है। नायक के पूर्व जन्मों की घटनाओं के समावेश के कारण कथानक में सम्पूर्णता परिलक्षित होती है। अहिंसा, सत्य, अचौर्य आदि महाव्रतों के आख्यानों का गुम्फन कर नायक के चरित को सरल, उज्जवल व निर्मल बनाने का कवि ने पूर्ण प्रयास किया है। सांस्कृतिक दृष्टि से भी इस चरितकाव्य में महत्त्वपूर्ण सामग्री उपलब्ध है। मंत्र-तंत्र, विद्या-साधक, कापालिकों के क्रियाकाण्ड आदि का भी उल्लेख है। महाराष्ट्री प्राकृत में रचित इस काव्य में यत्र-तत्र संस्कृत व अपभ्रंश के पद्य भी प्राप्त होते हैं ।
SR No.091017
Book TitlePrakrit Sahitya ki Roop Rekha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTara Daga
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year
Total Pages173
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size6 MB
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