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________________ ७०८ जैन आगम साहित्य : मनन और मीमांसा उनका आत्मा से लगे रहना । बन्ध आदि के द्वारा स्व-स्वरूप को प्राप्त करने वाली कमों की स्थिति। समय-काल का अत्यन्त सूक्ष्म अविभागी अंश समय कहा जाता है। समुद्घात-मूल शरीर को छोड़े बिना ही आत्मा के प्रदेशों का बाहर निकलना। सम्यक्त्वमोहनीय-जिसका उदय तात्त्विक रुचि का निमित्त होकर भी औपशमिक या क्षायिक भाव वाली तत्त्व रुचि पर प्रतिबन्ध करता है। दूसरे शब्दों में कहें तो सम्यक्त्व का घात करने में असमर्थ मिथ्यात्व के शुभ दलिकों को सम्यक्त्व मोहनीय कहते हैं। सागरोपम-दस कोटाकोटि पल्योपम का एक सागरोपम होता है। सामायिक-राग-द्वेष के अभाव को समभाव कहते हैं। और जिस संयम से समभाव की प्राप्ति होती है; अथवा ज्ञान-दर्शन-चारित्र को सम कहते हैं और आय लाघव प्राप्ति होने को समाय तथा समाय के भाव को सामायिक कहते हैं। सूक्ष्मसम्पराय गुणस्थान-क्रोधादि कषायों द्वारा संसार में परिभ्रमण होता है अतः उसे सम्पराय कहते हैं। जिसमें केवल लोभ कषाय के सूक्ष्म खण्डों का ही उदय हो वह सूक्ष्म संपराय गुणस्थान है। स्कन्ध-दो या अधिक परमाणओं के संयोग से उत्पन्न द्वयणक आदि छह प्रकार के सूक्ष्म स्थूल भौतिक तत्त्व पौद्गलिक पिंड आदि को स्कन्ध कहते हैं। स्थिति-विवक्षित कर्म के आत्मा के साथ लगे रहने का काल । स्थितिघात-कर्मों की बड़ी स्थिति को अपवर्तनाकरण द्वारा घटा देने अर्थात् जो कर्म दलिक आगे उदय में आने वाले हैं उन्हें अपवर्तनाकरण के द्वारा अपने उदय के नियत समय से हटा देना स्थितिघात है। स्थितिबन्ध अध्यवसाय-कषाय के उदय से होने वाले जीव के जिन परिणाम विशेषों से स्थितिबन्ध होता है, वे परिणाम स्थितिबन्ध अध्यवसाय हैं। स्पर्धक-वर्गणाओं के समूह को स्पर्द्धक कहते हैं। हाथ-दो वितस्ति के माप को हाथ कहते हैं। हिंसा-प्रमाद योग से किसी जीव के प्राणों का अपहरण करना। हित-जिससे मोक्ष रूप प्रधान फल की उपलब्धि होती है। वह स्वहित और परहित के रूप में दो प्रकार का है।
SR No.091016
Book TitleJain Agam Sahitya Manan aur Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1977
Total Pages796
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size20 MB
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