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आनन्द प्रवचन : भाग ६
आचरणीय वस्तुओं का आचरण करने के लिए अत्पर रहता है। जैसे सांप या सिंह को मामने आते देखकर मनुष्य तत्काल उससे दूर हऽने का प्रयत्न करता है, वह उस समय यह नहीं सोचता कि अभी तो नहीं फिर कभी। हट जाऊँगा, कल कर लँगा वैसे ही स्थिरबुद्धि व्यक्ति अपने पापों या दोषों को जाकर उन्हें तत्काल दूर करने का प्रयत्न करता है, आगे पर नहीं छोड़ता। नीतिकार उक स्थिरबुद्धि पुरुषों की विशेषता बताते
उपायसन्दर्शनां विपत्तिमपायासंदर्शनां च सिद्धिम् ।
मेषाबिनो नीतिविधिप्रयुक्तां पुरः स्फुरन्तीमिव दर्शयन्ति। मेधावी पुरुष विपत्ति का उपाय के दर्शन के साथ और नैतिक विधि से प्रयुक्त सिद्धि को अपाय के दर्शन के साथ अपने सामने स्फुरित होती हुई-सी देखते हैं। तात्पर्य यह है कि स्थिरबुद्धि पुरुष के युद्धि-पट पर विपत्ति और कार्य, सिद्धि के साथ साथ क्रमशः उनके उपाय और अपाय (विघ्न) फले से ही चित्रित हो जाते हैं। एक पाश्चात्य विचारक लेक्टेण्टियस (Lactantite) स्थिरबुद्धि के दो मुख्य कार्य बताता
"The first point of wisdom ist to discern that which is false, the second to know that which is trve."
'बुद्धि का प्रथम दृष्टिबिन्दु है, जो अरूय है उस पर ठीक विचार करना, और दूसरा दृष्टिबिन्दु है जो सत्य है उसे जानना ।' स्थिरबुद्धि ही इन दोनों दृष्टि बिन्दुओं से विचार कर सकती है। जिसकी बुद्धि चंचल है, काम-क्रोधादि आवेशों से युक्त है, वह कदापि इन दो दृष्टिबिन्दुओं को नहीं अपना सकता। ऐसी स्थिरबुद्धि ही शास्त्रों का यथार्थ अर्थ कर सकती है, उस पर चिन्तन-नालन एवं ऊहापोह ठीक ढंग से कर सकती है। इसी बात का समर्थन एक विद्वान ने किया है
बुद्धिबोच्यानि शास्त्राणि, नाबुद्धिः शास्त्रबोधकः
प्रत्यक्षेऽपि कृते दीपे, चक्षुहीनो न पश्यति । शास्त्रों का बोध बुद्धि (स्थिरबुद्धि) से फोता है, अबुद्धि शास्त्रों का बोध नहीं कर सकती। दीपक सामने जल रहा हो, फिर भी नेत्रहीन व्यक्ति उसे देख नहीं सकता। बुद्धि किसकी स्थिर, किसकी नहीं?
महर्षि गौतम ने स्थिरबुद्धि या बुद्धि के एकाग्र या स्थिर रहने, पलायन न करने का एक अद्भुत नुस्खा बता दिया है, इस सूक्ष में। उन्होंने यह स्पष्टतः बता दिया है कि जो व्यक्ति विनीत है, नम्र है, निरहंकारी है, तथा जो क्रोधादि प्रचण्ड आवेशों से युक्त नहीं है, सौम्य हैं, बुद्धि उसकी सेवा मे हर समय रहती है। इससे यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि जिस व्यक्ति में क्रोध, द्वेष ,रोष। ईर्ष्या आदि प्रचण्ड आवेश हैं, और जो अविनीत है, अहंकारी है, गर्व से ग्रस्त है, उसके पास ऐसी स्थिर सात्त्विक बुद्धि नहीं फटकती. वह पलायन कर जाती है।