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________________ सुख का मूल : सन्तोष ५१ था। उसने कारण पूछा तो बोला--"तीन-चार दिनों से इसे बुखार हो गया है। इसलिए मैं इसकी सेवा करता हूं।" दूकानदार ने पूछा- “इसकी मां नहीं है ? वह क्या करती है ?" यह बोला-"है, पर उसका दिमाग ठीक नहीं है, वह उस कमरे में है।" दूकानदार के आते ही उसने आनाकानी करते रहने पर भी स्वयं चाय बनाकर पिलाई थी, इसलिए उसने पूछ लिया--"कशा रसोई आप ही बनाते हैं ?" वह प्रसन्नचित से बोला---'"इसमें क्या है ? यह तो मेरा रोजाना का काम है। इस बच्चे की मां रसोई नहीं बना सकती। यह छोटा लड़का स्कूल जाता है, एक इससे बड़ा लड़का और है, वह आवारा फिरता है। कहीं दूकान पर भी जमता नहीं और न ही पढ़ता-लिखता है। वह भी भोजन नहीं बना सकता। अभी वह घूम-घामकर आएगा और भोजन कर जाएगा।" थोड़ी ही देर में मह लड़का आया और गृहस्वामी ने उसे भोजन कराकर सन्तुष्ट किया। दूकानदार यह सब परिस्थिति देखकर गुछ बैठा-"आप ऐसी कष्टप्रद स्थिति और घोड़ी-सी आय में भी कैसे प्रसन्न और सन्तुष्ट रह लेते हैं ?" उसने हंसकर कहा—"जैसा, जो कुछ मिला है उसी में गुजर-बसर न करके अगर मैं लोगों के सामने अपना दुख रोता फिरूँ, मन में कुढ़ता रहूँ, घरफ लोगों को कोसता और डाँटता फिरूँ तो मैं स्वयं अधिक दुखी और मासिक रोगी बन जाऊँगा। इससे बेहतर तो यही है, प्रत्येक परिस्थिति को शान्ति और धैर्य से सरकर सन्तुष्ट और प्रसन्न होकर जीऊँ। इसका मतलब यह नहीं है कि मैं अपनी परिस्थिति को सुधारने के लिए यथाशक्य प्रयल नहीं करता, करता हूँ। परन्तु प्रयत्न करी पर भी विशेष सुधार नहीं होता तो मैं कुढ़ता नहीं, प्रसन्नतापूर्वक उसका वरण कर तिा हूँ। सन्तोष मेरी साधना है। मुझे अलग से मन्दिर में नहीं जाना पड़ता, मैं इसी परिस्थिति और गृहवाटिका में रहकर अपनी धर्मसाधना कर लेता हूँ।' दूकानदार सभावित होकर नमस्कार करके विदा हुआ। यह है सन्तोषी जीवन का ज्वलन्त उदहारण | जुन्नेद के शब्दों में सन्तोष की परिभाषा भी यही है'अहंभाव को छोड़कर विपत्ति को भी सम्पत्ति मानना संतोष है।' संतोयो जीवन : विवेकपूर्ण दृष्टिकोण से यदि मनुष्य थोड़ा-सा विवेक से काम लेतो प्रत्येक परिस्थिति में उसका सन्तुष्ट रह सकना असंभव नहीं है। जो लोग असंतुष्ट रहते हैं, उनके सोचने का दृष्टिकोण बदल जाए तो वे सन्तुष्ट बन सकते हैं। मनुष्य , असंतोष का एक प्रमुख कारण यह है कि वह अपनेसे अधिक साधन-सुविधा वाले व्यक्ति से अपनी कमी की तुलना किया करता है। जब वह यह सोचता है कि मेरे पास तो केवल एक छोटा-सा मकान ही है,
SR No.091010
Book TitleAnand Pravachana Part 9
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnandrushi
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1997
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size10 MB
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