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________________ सुख का मूल : सन्तोष ४५ असन्तुष्ट : सदा दुःखी अपनी वर्तमान परिस्थियों में असन्तुष्ट रहना अधिकांश मनुष्यों का स्वभाब होता है। उनका वर्तमान कितना ही अनुकूल क्यों न हो, किन्तु वे खिन्नता और असन्तोष का कोई न कोई कारण निकाल ही लिया करते हैं। असंतोष एक प्रकार का दर्द है, जिससे मनुष्य को उसी प्रकार की बेचैनी हुआ करती है, जैसे आंख, पेट, सिर, कान या डाढ़ के दर्द होने पर होती है। असन्तुष्ट व्यक्ति किसी कार्य को पूरा करते ही सफलता पाने या जो कुछ चाहते हैं, उसे तुरन्त ही प्राप्त हो जाए की कल्पना किया करते हैं। उनमें धर्य नाम मात्र को नहीं होता। यदि जरा-सी भी देर हो जाती है तो वे अपना मानसिक सन्तुलन खो बैठते हैं और सफलता के लिए अत्यन्त आवश्यक गुण-धैर्य एवं मानसिक स्थिरता को खोकर असन्तोषरूपी भारी विपत्ति को अपने सिर पर ओढ़ लेते हैं। जिसका भार लेकर उन्नति की दिशा में कोई व्यक्ति देर तक नह चल सकता। उन्नति की आकांक्षा और बात है, अआन्तोष की वृत्ति के कारण धनादि पाने की अनुचित महत्त्वकांक्षाएं बिलकुल दूसरी बात है। उन्नतिशील व्यक्ति आशा, उत्साह, धैर्य और साहस को साथ लेकर प्रसन्न मुखाम्द्रा और स्थिर चित्त के साथ आगे बढ़ता है। जैसे गहरे पानी में उतरते समय हाथी अपना प्रत्येक कदम संभाल-संभालकर रखता हुआ आगे बढ़ता है। उन्नतिशील व्यक्ति सस्थचित्त, अनुद्विग्न एवं स्थितप्रज्ञ होने के कारण आने वाली कठिनाइयों, विघ्न-बाधाओं और प्रतिकूल परिस्थितियों का सही कारण और उनका यथार्थ निवारण ढूंढकर अपनी ही सूझ-बूझ से उनका निराकरण करने और संकटों को साहस एवं दृढ़ता के साथ पार करने में समर्थ होता है। वह उतावली, अधीरता और उद्विग्नता को नत्री अपनाता, जब कि असन्तोषी व्यक्ति उतावला, जल्दबाज, उद्विग्न एवं अधीर । हो बैठता है। उसमें संकटों के सामने साहसपूर्वक टिके रहने की दृढ़ता नहीं होती। असन्तुष्ट व्यक्ति का मानस असन्तोष एक मानसिक ज्वर है। जिस प्रकार बुखार होने पर रोगी शारीरिक और मानसिक दोनों तरह से अशक्त हो जाता है, खड़े होते ही उसके पैर लड़खड़ाने लगते हैं, कुछ ही देर पढ़ने, बोलने या सोचन से उसका सिर दर्द करने लगता है, उसे चक्कर आने लगता है, उसी प्रकार असन्तो ज्वर से पीड़ित मानसिक रोगी की भी हालत हो जाती है, वह जरा-सा संकट आते ही अशक्त होकर बैठ जाता है, किसी भी समस्या की गहराई में जाकर उसका हल करने की बात पर अधिक देर तक नहीं सोच सकता। उसे दूसरों की तरक्की को देख-देखकर कुढ़न होती है, पर कर-धर कुछ नहीं सकता। हर घड़ी कुढ़न और जलन उसे घेरे हती हैं। क्षुब्ध और उत्तेजित मन से वह
SR No.091010
Book TitleAnand Pravachana Part 9
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnandrushi
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1997
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size10 MB
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