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________________ सुख का मूल : सन्तोष ४३ उसकी वह इच्छा भी पूर्ण हो जाती तथापि वह बालक योग्य न निकलता, तो फिर इच्छापूर्ति के अभाव का रोना रहता न ? अथवा उसके पुत्री हो गई, उससे सन्तानेच्छा पूर्ण हो जानी चाहिए थी, लेकिन उसकी पुत्री अपने मनोनीत रंगरूप की नहीं हुई तो ? इस प्रकार मनुष्य की एक इच्छा के साथ न जाने कितनी ही अवान्तर इच्छाएं जुड़ जाती हैं। मान लो, अपनी सब इच्छाओं की मूर्ति के लिए चिन्तामणि-मन्त्र की साधना करने से उसे चिन्तामणि की सिद्धि प्राप्त हो गई, जो कि सामान्यतया असम्भव सी है। फिर भी चिन्तामणि से इच्छा सिहि होने के बावजूद भी उनका अभाव का अनुभव दूर न होगा। उसकी एक मनोनुकूल इच्छा थोड़ी देर में पुरानी होने पर वह नई इच्छा की पूर्ति के लिए लालायित हो उठेगा। इस प्रकार यदि मनुष्य रात दिन अपनी मनोवांछाओं की पूर्ति में लगा रहे तो भी चाह सन्तुष्ट नहीं हो सकता, क्योंकि सन्तोष वस्तुओं और परिस्थितियों में नहीं, अपितु गनुष्य की मनःस्थिति में है। एक पाश्चात्य तत्त्ववेत्ता ने कहा है "He who is not contended with what he has, would not be contented with what he would like to have." "वह व्यक्ति, जो कि अपने पास जो है, उसमें सन्तुष्ट नहीं है, तो वह उससे भी सन्तुष्ट नहीं होगा, जितना की वह अपने पाने के लिए मन में चाह संजोए हुए हैं।" असन्तुष्ट व्यक्ति बड़ी-बड़ी महत्त्वकांक्षाएं मन में करता है। परन्तु वे सबकी सब महत्त्वाकांक्षाएं कभी पूरी नहीं हो पातीं। केरल मनुष्य अपने दिमाग में उन कल्पनाओं का बोझ ढोए फिरता है। किन्तु उस अनावाध्यक बोझ को मस्तिष्क से दूर फेंककर वह हल्का और शान्त नहीं होता। एक बार शेखसादी किसी व्यापारी के यहाँ ठहरे। व्यापारी बहुत धनवान था। उसके घर में बहुत माल भरा हुआ था। उसके यहाँ नौकर-चाकर भी अधिक संख्या में थे। यह व्यापारी रात भर अपनी रामकहानी सुनाता रहा। उसने बताया -" मेरा इतना माल तुर्किस्तान में है, इतना हिंदुस्ताना में, इतना अमुक नगर और गांव में है। मुझे उन देशों की यात्रा करनी है। फिर मुझे स्वास्थ्य सुधार के लिए अमुक देश जाना है। इसके पश्चात् मुझे तीर्थयात्रा करने बहुम दूर जाना है। फिर एकान्तवासी बनकर खुदा की इबारत करनी है। सादी साहब उसकी बातें सुनते-सुनते कब गए, फिर भी उसकी रामकहानी पूर्ण न हुई। अतः शेख साहब बीच में ही बोल उठे-"आपको मालूम है, जिन्दगी अब और कितने दिन की है ?" व्यापारी बोला- "मुझे इस विषय में बिलकुल मालूम नहीं है।" तो फिर आपने इतने वर्षों के प्रोग्राम पहले क्यों बना रखे है ? यदि आप धन की इच्छापूर्ति होने के बाद ही धर्म कार्य करना चाहते हैं तो मेरी बात गांठ बांध लीजिए कि आपकी यह धन
SR No.091010
Book TitleAnand Pravachana Part 9
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnandrushi
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1997
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size10 MB
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