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कुशियों को बहुत कहना भी विलाप ४०१ ही रामकृष्ण परमहंस का दिल भर आया, उन्होंने नरेन्द्र को छाती से लगाते हुए कहा--"अरे पगले। मैं तो तेरी परीक्षा के. रहा था कि तू उपेक्षा सह सकता है या नहीं ? तू मेरी परीक्षा में उत्तीर्ण हुआ है। मेरा हार्दिक आशीर्वाद है कि तू इस धरती पर मानवता का अमर प्रहरी बनेगा।"
यह है परीक्षा द्वारा सुशिष्य के निर्णय का तरीका। यह विधि यद्यपि काफी पेचीदा है। इसमें शिष्य की श्रद्धा सहसा शांवाडोल होने पर उलटा परिणाम भी आ सकता था। अनेक शिष्यों की एक साथ परिक्षा करते समय कई अविनीत शिष्यों द्वारा गुरु पर पक्षपात, द्वेष, या ईर्ष्या का दोषारोपण भी आ सकता है।
शिष्यों की परीक्षा गुरु एक और सरल तरीके से भी लेता है, पर, लेता है वह ढलती उम्र में, अपने उत्तराधिकारी के चुनादा के लिए।
एक गुरु के तीन शिष्य थे। वृद्धावस्था में इन्द्रियों के क्षीण हो जाने के कारण वे अपने पट्ट पर किसी शिष्य को आसीन करके निश्चिन्त हो जाना चाहते थे। परन्तु यह उत्तराधिकार किस शिष्य को सौंपा जाए ? इस दृष्टि से एक दिन उन्होंने अपने एक शिष्य को बुलाकर कहा-"मेरे लिए किसी गृहस्थ के यहां से आम की फांके ले आओ।"
गुरुजी के शब्दों को सुनकर वह जोर से हंसा और बोला--"हें, इस बुढ़ापे में भी आपकी हवस नहीं गई ? कब तक यह चटोरापन बना रहेगा ?" यों कहकर वह चल दिया।
अब गुरु जी ने दूसरे शिष्य को बुलाकर भी यही इच्छा प्रकट की। वह प्रत्युत्तर दिये बिना ही आम लेने चल दिया।
गुरुजी ने उसे वापस बुलाकर कहा-"अच्छा, अभी रहने दो, फिर देखा जाएगा।" तीसरे शिष्य को भी गुरुजी ने यही आदेश दिया, तो उसने विनयपूर्वक पूछा- "गुरुदेव ! आम्र फल तीन प्रकार के होते हैं ? आपके लिए कौन-सा ले
आऊं?"
इतना सुनते ही गुरुजी ने उसे रोका और समझ लिया कि 'यही योग्य शिष्य है।" गुरुजी को विनय, ज्ञान और क्रिया में वही शिष्य उत्तम प्रतीत हुआ। अतः उन्होंने उसी को 'पट्टशिष्य' की पदवी प्रदान कर दी। कहा भी है
परीक्षा सर्वसाधूनां शिष्याणाञ्च विशेषतः। कर्तव्या गणिना नित्यं त्रयाणां हि कृता गया।
गणी (गुरु) को सब साधुओं की, विशेषतः अपने शिष्यों की परीक्षा अवश्य करनी चाहिए, जैसे इन तीन शिष्यों की परीक्षा ली गई।
सुशिष्य की पहिचान की एक तीसरी विधि है-सत्कार्यों या कर्तव्यों से परखने की। जो शिष्य सत्कार्यों या अपने कर्तव्यों का पालन करने मे दक्ष होता है, वह गुरु के चित्त को स्वतः आकर्षित कर लेता है।