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________________ ३६८ आनन्द प्रवचन : भाग ६ दोनों हाथ जोड़कर गुरुचरणों में बन्दना करनी ग्वाहिए। असावधानी से यदि गुरु के शरीर या उपकरणों का संगट्टा (स्पर्श) हो जाए की शिष्य नम्रता से कहे भगवन् ! मेरे इस अपराध को क्षमा करें। फिर कभी ऐसा नहीं होगा । " “ अधिक प्रज्ञावान होने पर भी शिष्य गुरु की अवज्ञा न करे।" "जिस गुरु से आत्मविकासी धर्मशास्त्रों के गूढतत्वों की शिक्षा ग्रहण करे, उसकी पूर्णरूप से विनयभक्ति करे, हाथ जोड़कर सिर से नमस्कार करे और मन-वचन-काया से सदा यथोचित सत्कार करे।" इन विनय आदि गुणों से गुरु अपने शिष्त्र की गतिविधि को देख-परख सकता है। अगर ये गुण शिष्य में पाये जाएं तो समझ लेना चाहिए कि वह सुशिष्य है। ऐसे सुशिष्य को अध्यात्मज्ञान एवं शास्त्रीयज्ञान देने में कोई आपत्ति नहीं है। ऐसा सुशिष्य न तो अपने लिए सुख-सुविधा चाहता है, न कोई बढ़िया वस्त्र- पात्र । वह केवल गुरु कृपा चाहता है, गुरु के द्वारा लोककल्याण चाहता है और चाहता है-गुरु का उपदेश श्रवण । तथागत बुद्ध के परमभक्त शिष्य आनन्द इसी प्रकार के विनीत सुशिष्य थे । बुद्धत्वप्राप्ति के २० वर्ष पश्चात् से लेकर लगातार २५ वर्ष तक उन्होंने बुद्ध की सेवा इन चार शर्तों के साथ की थी- जाएं। (१) बुद्ध स्वयं प्राप्त उत्तम भोजन, वस्त्र एवं गंधकुटीर में निवास मुझे न दें। (२) निमन्त्रण में मुझे साथ न ले जाएं, मेरे द्वारा स्वीकृत निमंत्रण में वे अवश्य (३) दर्शनार्थी को मैं जब चाहूं तब मिला सकूं, मैं भी जब चाहूं तब निकट जा सकूं । (४) मेरी अनुपस्थिति में दिया गया उपदेश मुझे पुनः सुनाया जाए । कहते हैं भिक्षु आनन्द क्रमशः ६० हजार शब्द याद रख सकते थे। ऐसे सुशिष्य को पाकर और उसे तत्त्वज्ञान का उपदेश देकर भला कौन गुरु धन्य न होगा ? यही बात श्रमण महावीर भगवान् महावीर के पट्टधर शिष्य गणधर इन्द्रभूति गौतम के सम्बन्ध में कही जा सकती है। वे भी परम विनीत, परम आज्ञाकारी, गुरुसेवा में पूर्णतया समर्पित, गुरु के संकेत के अनुसार संघ का संचालन करने वाले एवं आदर्श शिष्य थे। उन्हीं की आदर्श शिष्यता के फलस्वरूप आज संघ को इतनी बहुमूल्य शास्त्रीय ज्ञाननिधि मिली है। एक आधुनिक उदाहरण लीजिए-स्वामी रामकृष्ण परमहंस के गले पर एक वार एक जहरीला फोड़ा हो गया था। शिष्य फोई का चेप लग जाने के भय से गुरु से दूर-दूर रहने लगे। स्वामी विवेकानन्द उन दिनों अर्मप्रचार के लिए कहीं बाहर गये हुए थे। जब उन्हें गुरु की बीमारी के समाचार मिले तो वे शीघ्र लौट आए। यहां आकर जब उन्होंने देखा कि शिष्य उनकी सेवा नहीं कर रहे हैं, तो उन्हें बड़ा दुख हुआ। गुरु
SR No.091010
Book TitleAnand Pravachana Part 9
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnandrushi
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1997
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size10 MB
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