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________________ कुशिषों को बहुत कहना भी विलाप शास्त्रों में सुशिष्य के विनयादि गुण इस प्रकार बताये गये हैं— आणानिद्देसकरे, गुरूणमुववायकारए । इंगियागारसंपत्रे से विणीए त्ति बुच्चई । १ तद्दिठीए, तम्मुत्तीए, तप्पुरक्कारे, तस्सन्त्री, तन्निवेसणे । २ मोगयं वकयं जाणित्तायरियस्स उ । तं परिगिज्या वायाए कम्मुणा उववाभए || न पक्खओ, न पुरओ, नेव किञ्चाण पिलाओ। न जुंजे ऊरुणा ऊरुं, सयणे नो पडिस्सु । ४ आलवंते लवंते वा न निसीएज्ज कया । चइऊणमासणं धीरो, जओ जुत्तं पडिस्सु । ५ आसणगओ न पुच्छेजा, नेव सेज्जागओकयाइ वि। आगमुक्कुडुओ संतो, पुच्छेज्जा पंजरनी हो । ६ नीयं सेज्जं गई ठाणं, नीयं च आसणाणि य । नीयं च पाए वंदेज्जा, नीयं कुखा व अंजन।। संघट्टत्ता कारणं, तहा उवहिणामवि । ३६७ खमेह अवराहं मे, चएज न पुणोत्ति य । ॐ प्रज्ञयाऽतिशयानोऽपि न गुरुमवज्ञायेत । 3. जस्संतिए धम्मपयाई सिक्खे, तस्संतिए णियं पउंजे। सक्कारए सिरसा पंजलीओ, कार्यग्गिरा भी मणसा व निचं । ६ अर्थात् 'गुरु आज्ञा को शिरोधार्य करने वाला, गुरु के समीप बैठने वाला और इंगित आकार को समझकर कार्य करने वाला शिष्य विनीत कहलाता है।" "विनीत शिष्य को चाहिए कि वह गुरु की दृष्टि के अनुसार चले, गुरु की निःसंगता का अनुसरण करे, उन्हें हर बात में आगे रखे, उनमें श्रद्धाभक्ति रखे और उनके पास रहे । " " आचार्य (गुरु) के मन, वचन और काया के भावों को जानकर उन्हें वचन द्वारा स्वीकार करके काया के द्वारा तदनुसार उन्हें सम्पादन करे।" "आचार्यों (गुरुओं) के इतना सटकट, पासे से पासा भिड़ाकर न बैठे, उनके आगे न बैठे, उन्हें पीठ करके न बैठे, उनकेा बुटने से घुटना अड़ाकर न बैठे तथा शय्या पर बैठा ही उनके वचनों को न सुने।" "गुरु के द्वारा एक बार या बार-बार बुलाने पर कदापि न बैठा रहे, किन्तु बुद्धिमान शिष्य आसन छोड़कर यत्नपूर्वक गुरुवचनों को सुने।" "आसन या शय्या पर बैठा-बैठा ही गुरु से न पूछे, अपितु आसन से उठकर उत्कटिकासन करता हुआ हाथ जोड़कर प्रश्न (सूत्रादि अर्थ ) पूछे। शिष्य को अपनी शय्या, गति, स्थान और आसन, ये सब गुरु से नीचे रखने चाहिए तथा नम्र होकर,
SR No.091010
Book TitleAnand Pravachana Part 9
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnandrushi
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1997
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size10 MB
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