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________________ ३८० आनन्द प्रवचन : भाग ६ चिन्तन, अशुभ विचार, गंदी भावना और अश्लील या क्लिष्ट कार्यों की लगन भर जाती है, तब व्यक्ति का चित्त अस्वस्थ हो जाता है, और जब वह अपने चित्त के अशुद्ध-चिन्तन या अशुभ विचारों के अनुसार बुरे एवं अनैतिक कार्यों में लग जाता है, या लगा रहता है तो चित्त भी हीन होता जाएगा। धीरे-धीरे चित्त का अभ्यास भी अशुद्ध ही बनेगा, जो चित्त को विक्षिप्त बना देगा। जिसका जीवनक्रम जितना क्लिष्ट, अशुभ, या अनैतिकतापूर्ण होता जाता है, कानी ही उसकी चित्तीय स्थिति उलझी हुई और क्लिष्ट तथा विक्षिप्त बन जाती है। अतः चित्त को विक्षिप्त होने से बचाने का चौथा उपाय है उसको अशुद्ध, अस्वस्थ एवं असंतुलित न होने देना ! जिसका शुभ संकल्प जितना ही बलमन होगा, उसके चित्त की विक्षिप्तता एवं चंचलता उतनी ही कम होगी, स्थिरता एवं एकाग्रता अधिक होगी। इससे चित्त की शक्ति, जो मनुष्य को उत्कृष्ट एवं हर कार्य में सफल बनाती है, विश्रृंखलित न होगी। मनुष्य दृढ़तापूर्वक अपने निर्धारित सत्पथ पर बढ़ता चला जाएगा। मनुष्य का चित्त यदि अस्वस्थ एवं शुद्ध न हो तो उसे दुःख-द्वन्द्वों का सामना ही न करना पड़े। चिन्ता, क्षोभ, असंतोष, घबराहट आदि का ताप जब किसी को संतप्त करता है, तो वह उसका वास्तविक आन्तरिक कारण, जो कि चित्तदोष है, नहीं खोज पाता, वह उसका बाह्य कारण निमितम और परिस्थितियों में खोजता है। यही चित्त के अशुद्ध और अस्वस्थ होने का कारण है। चित्त की उच्छृखलता को न रोकने के कारण भी वह विक्षिप्त हो जाता है। उच्छृखल चित्त भी चित्त की विक्षिप्तता का एक कारण है। चित्त जब उच्छृखल हो जाता है तो हित की बात कब सुन पाता है ? वह आत्मकल्याण की या तत्त्वज्ञान की बात तो दूर से ही फैंक देता है, नजदीक फटकने ही नहीं देता। इसे इन्द्रिय सुखों, वाह्य भौतिक पदार्थों में सुख का आभास होता है जबकि इनमें आसक्ति या ममता से सुख का ह्रास होता है। उच्छृखल और उद्दण्ड व्यक्ति कब किसकी मानता है ? इसी प्रकार उच्छंखल और उद्दण्ड चित्त किसी भी हितैषी की कही हुई बात को प्रलाप समझकर ठुकरा देता है। इसलिए चित्त को विक्षिप्तता से बचाने के लिए उसे उच्छृखल होने से बचाना है। पल-पल पर सावधानी रखनी होगी कि चित्त एक बार भी बुरे विचार, बुरे चिन्तन या गंदी भावनाओं का शिकार न हो। बासनाप्रधान चित्त उच्छृखल चित्त की निशानी है। साधारण लोगों के चित्त की एक-स्थिति नहीं होती, वे अपने से बड़े, सत्ताधारी, धनिक, अथवा समाज के याह्यरूप से सुखी दिखाई देने वाले व्यक्तियों का अन्धानुकरण करते रहते हैं, वे अपने चित्त का कांटा उधर ही घुमा देते हैं, जिधर की हवा चलती है। इससे चित्त विक्षिप्त हो जाता है। अगर चित्त को इस प्रकार की
SR No.091010
Book TitleAnand Pravachana Part 9
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnandrushi
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1997
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size10 MB
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