SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 386
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३७६ विप्तिचित्त कोकहना विलाप लगातार बढ़ता रहता है, और शारीरिक शक्ति का जो क्षरण या छीजन हुआ है, उसकी भी पूर्ति वह चित्तशक्ति करती रहती है। मनुष्य अपनी आध्यात्मिक प्रगति की आकांक्षा करता है, किन्तु यदि उसमें चित्तीयशक्ति का समुचित उत्पादन न हुआ तो उसका मनोरथ बन्ध्या की पुत्रकामना की तरह निष्फल हो जाता है, उसका चित्त विक्षिप्ता हो जाएगा, उसमें कुण्ठा का जंग लग जाएगा। अतः चित्त को विक्षिप्त होने से बचाने के लिए शक्तियों का उत्पादन चित्त को एकाग्र करके लगन, उत्साह, तन्मयता एवं श्रद्धा के साथ लगातार करते रहना चाहिए, अभ्यास को छोड़ना ठीक नहीं होगा। तीसरा उपाय चित्त को विक्षिप्त होने से बचाने का यह है कि चित्त में निहित और संचित शक्तियों को बंद करके न रखें, उन्हें जागन करें, उनका सदुपयोग करें व करना सीखें। मनुष्य का चित्त एक औजार है। इस औजार के सहारे वह छोटे-बड़े कार्यों का सम्पादन करता है। पाप-पुण्य, उन्नति - अवनी, सफलता-असफलता या स्वर्ग-नरक आदि की रचना चित्त पर निर्भर है। मैं पूछता हूं, जिस औजार पर मनुष्य के सभी सुख-दुख निर्भर हों, उसका ठीक तरह से उपयोग या प्रयोग करना तो आना चाहिए न? किन्तु कितने लोग हैं, जो चित्त की शक्तियों का सदुपयोग करना जानते हैं ? बंदर के हाथ में तलवार हो, बछड़े की दुम से राजसिंहासन बंधा हो तो ये दोनों ही पशु उससे कुछ ही लाभ न उठा सकेंगे, बल्कि आफत में फंस जाएंगे। जिस व्यक्ति को बंदूक के कलपुर्जों का ज्ञान न हो तो वह गोली-बारूद सहित बढ़िया राइफल लिये फिरे, उससे लाभ तो कुछ भी न उठा पाएगा, बल्कि कुछ भान हुई तो मुसीबत में पड़ जाएगा। इसी प्रकार चित्तरूपी औजार मनुष्यो के पास है, अगर वह इसकी शक्तियों का ठीक तरह से उपयोग या प्रयोग करना नहीं जानता है तो नावन की तरह चित्त को विक्षिप्तता के गर्त में गिरा देगा, जिससे अनेक मुसीबतें खड़ी कर लगा। अधिकांश मनुष्य नाना प्रकार की आपत्तियों, कठिनाइयों और वेदनाओं में तड़पते मालूम होते हैं, इनका कारण मनुष्य को अपनी चित्तीय शक्तियों का सदुपयोग करना न आना है। वित्तीय शक्तियों का सदुपयोग न करने से उसका चित्त विक्षिप्तता के कुसंस्कार में फंसकर नाना दुःखों, काल्पनिक या स्वतः कल्पित कष्टों का अनुभव करता है। चित्त रूपी औजार का ठीक उपयोग करना आता तो शायद आधे से अधिवत् दुःखों का अन्त हो जाता। चौथा उपाय है चित्त को अशुद्ध और अस्वस्थ न होने देना । जिस प्रकार अनाड़ी ड्राइवर गाड़ी को कहीं भी दुर्घटनाग्रस्त कर सकता है, उसी प्रकार असंतुलित, अशुद्ध एवं अस्वस्थ चित्त. जो कि आगे चलकर विक्षिप्त होजाता है, जीवन नैया को मझधार में डुबा देता है, Fष्टकर देता है। चित्त में जब अशुद्ध
SR No.091010
Book TitleAnand Pravachana Part 9
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnandrushi
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1997
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy