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________________ विक्षिप्तचित्त कोकहना विलाप ३७७ सुख नहीं मिल सकता। एकाग्रचित्त से सोचने पर जिस मोर्चे पर तू नियुक्त है, वहीं दृढ़ता से इटा रह । इसी सेजीवन का सा सुख मिलेगा। वस्तुतः एकाग्रचित्त व्यक्ति के प्रत्येक कार्य में वफादारी, लगन, निष्टा, कर्तव्य तत्परता आ जाती है, इसके कारण उसे बाहर से कष्टप्रद दिखाई देनेवाले कार्य में भी आनन्द महसूस होता है। जवान की आंखें खुल गई, उसे जीवन की सही दिशा प्राप्त हो गई। अब उसे विक्षिप्तचित्त होकर अधिक भटकने की आवश्यकता न रही। विक्षिप्तचित्त दबा हुआ रहता है विक्षिप्तचित्त एक तरह से दबा हुआ रहता है, जो विरोधी हो जाता है, अच्छा काम बिलकुल नहीं कर पाता। उस टूटे हुए चित्त-पात्र में भला कोई उपदेश-जल डालकर क्या करेगा ? इसलिये एक पाचात्य विचारक टायरन एडवर्डस (Tyron Edwards) ने कहा कहा है— "There is nothing so elastic as the human mind. Like imprisoned steam, the more it is pressed, the more it rises to resist the pressure. The more vve are obliged to do, the more we are able to accomplish. " "मानवीय चित्त जैसा कोई लचीला पदार्थ दुनियाँ में नहीं है । बन्द किये हुए भाप की तरह ज्यों-ज्यों इससे दबाया जाता है, त्यों-त्यों यह दबाने वाले का बलपूर्वक सामना करने को उठता है। जितना हम करने के लिए बाध्य किये जाते हैं, उतने ही हम उसे पूर्ण करने के योग्य होते हैं।" मतलब यह है कि जब तक आप चित्त को सिर्फ दबाकर रखते हैं, तब तक दबा हुआ चित्त तेजी से विपरीत कार्य करूंप्रे लगता है। पर यदि उसे हम किसी अभीष्ट कार्य में जोड़ दें और अच्छी तरह तन्मयापूर्वक उस कार्य को करने के लिए मजबूर कर दें तो चित्त उस कार्य को सफलतापूर्वक पूर्ण करके छोड़ता है। सिर्फ दबाया हुआ चित्त विक्षुब्ध एवं विक्षिप्त हो जाता है, वह कोई भी काम भली-भांति नहीं कर सकता, तब किसी देत उपदेश या बोध को तो ग्रहण ही कैसे कर सकता है ? चित्त को विक्षिप्त होने से बचाने के उपाय चित्त को विक्षिप्तता या अस्थिरता से बचा लिया जाये तो उसमें शक्तियों का जागरण एवं संवर्धन हो सकता है। यदि वह विक्षिप्त, बिखरा हुआ या अस्थिर रहता है तो उसकी रही-सही शक्तियां भी नष्ट-भ्रष्ट हो जाती हैं। इसलिए चित को विक्षिप्त होने से बचाने के लिए यह आवश्यक है कि आप चित्त की शक्तियों को नष्ट न होने दें।
SR No.091010
Book TitleAnand Pravachana Part 9
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnandrushi
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1997
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size10 MB
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