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________________ आनन्द प्रवचन: भाग ६ ३६४ कहा— “भगवन् ! एकान्तसेवन के साथ एक बार और धर्मग्रन्थों का पारायाण कर लें तो श्रेयस्कर होगा । " भिक्षु के क्रोध की सीमा न रही। अपमानदंशपीड़ित भिक्षु दिन-भर भटकता - भटकता शाम सद्धर्म के गूढ़ तत्त्वों का हस्योद्घाटन कर लिया है। अब मैं आपके राज्य का धर्माचार्य बनना चाहता हूँ, इसी कामना से यहां आया हूँ।" सम्राट् भिक्षु की कामना सुन किंचित् मुस्कराकर बोला- “आपकी सदिच्छा मंगलमयी है, लेकिन मेरी प्रार्थना है कि आप सभी धर्मग्रन्थों की एक आवृत्ति और कर डालें।" भिक्षु मन ही मन बड़ा क्षुब्ध हुआ, पर अम्राट् के आगे व्यक्त न कर सका ! सोचा--"क्यों न एक आवृत्ति और करके मुख्य अर्माचार्य का पद प्राप्त कर लूँ ।" दूसरे वर्ष जब वह सम्राट् के सामने उपस्थित हुआ तो सम्राट् ने फिर कहा—''भगवन् ! एकान्तसेवन के बाद एक बग और धर्मग्रन्थों का पारायण कर लें तो श्रेयस्कर होगा।" भिक्षु के क्रोध की सीमा न रही। अपामानदंशपीड़ित भिक्षु दिनभर भटकता भटकता शाम को एक सुनसान नदी पट पर आजा, रात्रि प्रारम्भ होते ही नियमानुसार सान्ध्य प्रार्थना में बैठ गया। आज की प्रार्थना में उसे अपूर्व आनन्द आया । शब्दों के नये नये अर्थ चेतना पर स्फुरित होने लगे। वह रात भर अपूर्व मस्ती में डूबा रहा। दूसरे दिन सुबह होते ही धर्मशास्त्र लेकर बैठ गय || लगातार सात दिन तक इसी प्रकार शास्त्रपाठों के नये-नये अर्थों की स्फुरणा अपनी अनुभूति और युक्ति के साथ उसकी चेतना में होती रही। सातवें दिन सम्राट् तिमिङ स्वयं उन्हें प्राना करने आए "भंते ! पधारिए। धर्माचार्य के आसन को सुशोभित कीजिए।" परंतु भिक्षु की धर्माचार्य बनने की महत्त्वाकांक्षा अब समाप्त हो चुकी थी, पाण्डिता और अध्यात्मज्ञान के अहंकार का स्थान अब आत्मज्ञान के आनन्द ने ले लिया था। मंद मुस्कान के साथ भिक्षु ने कहा – “राजन् ! अब मेरी महत्त्वाकांक्षा धमवार्या बनने की नहीं रही। सद्धर्म, अध्यात्मज्ञान आदि आचरण की वस्तुएँ हैं, वहिरे उपदेश की नहीं। आचरणपूर्वक उपदेश किसी जिज्ञासु को अहंकाररहित होकर किया जाए तो ठीक है।" बन्धुओ ! महर्षि गौतम ने इसी आशय के । लेकर इस जीवनसूत्र में कहा है-'असंपहारे कहिए खेलावो' क्या आध्यात्मिक और क्या व्यावहारिक सभी क्षेत्रों में बिना अनुभव के कोई बात किसी को कहना बिलापमात्र ही होती है। इस पर आप सभी गहराई से मनन- चिन्तन करें और जीवन में आचरित करने का पुरुषार्थ करें। *
SR No.091010
Book TitleAnand Pravachana Part 9
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnandrushi
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1997
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size10 MB
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