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________________ परमार्थ से अनभिज्ञ द्वारा कथन : विलाप ३६३ विश्व आकाश में जलती दिखाई दे रही हैं। सभी का दावा है कि उनके अतिरिक्त अन्यत्र अन्य कोई प्रकाश ही नहीं है। इसलिए दूसरों को अध्यात्मज्ञान का प्रकाश देने या प्रकाश देने का दावा करने से पहले स्वयं अपने आपको प्रकाशित करो। आप स्वयं ज्ञान से प्रकाशित हो जाएँगे तो फिर योग्यमात्र को देखकर तत्त्वज्ञान देने में आपको कोई संकोच नहीं होगा। गीता में भी यही बतहा है "उपदेक्ष्यन्ति न ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्त्वदर्शिनः । " " वे तत्त्वदर्शी एवं ज्ञानी तुम्हें ज्ञान ) अध्यात्मतत्त्वज्ञान) का उपदेश देंगे, उनके पास जाओ।' पहले स्वयं शास्त्रों के रहस्य को समझो तथागत बुद्ध का एक वाक्य है-अप्पदीपो भव' अपने स्वयं के दीपक बनो, तब दूसरों को अर्थबोध कराने का प्रयत्न करो। जैनशास्त्रों में जगह-जगह 'गीतार्थ ' शब्द आता है। उसका अर्थ भी यही है दिल जो स्थानांग, समवायांग आदि शास्त्रों का अर्थ, परमार्थ, रहस्यार्थ युक्ति-प्रयुक्ति और अनुभव से जान गया है, जिसने शास्त्र के अर्थों को आत्मसात् कर लिया है, दूसरे अगीतार्थ साधु उसी के निश्राय में रह सकते हैं, विचरण कर सकते हैं। ऐसा गीतार्थ अपर्क निश्चित विचरण करने वाले साधुओं को अध्यात्मज्ञान के विविध व्यावहारिक पहलू भी समझाता है। वह अनुभव और शास्त्रवचनों का समन्वय करके स्वयं चलता और दूसरों को चलाता है। इसीलिए महर्षि गौतम ने इस जीवान्सूत्र के द्वारा यह संकेत कर दिया है कि किसी को झपपट तत्त्वज्ञान या उपदेश देने की उतावल न करो, पहले स्वयं को खूब तैयार कर लो, शास्त्रवचनों का, अध्यात्मतज्यों का निश्चय और व्यवहार दोनों दृष्टियों से गहन अध्ययन करो, तत्पश्चात् उसका सक्रिय आचरण करके अनुभव करो, तभी दूसरों को उसका बोध या उपदेश दो, अन्यथा अपरिपक्वदशा में दिया गया बोध व्यर्थ प्रलाप मात्र होगा। बौद्धजगत की एक कम्बोडियन करण है। उसका सारांश यह है कि एक दिन कम्बोज सम्राट तिमि की राजसभा में बौद्धभिक्षु आया। कहने लगा- "राजन् ! मैं त्रिपिटकाचार्य हूँ, १५ वर्ष तक सारे बौद्धतगत का तीर्थाटन करके मैंने सद्धर्म के गूढ़ तत्त्वों का रहस्योद्घाटन कर लिया है। अब मैं आपके राज्य का धर्माचार्य बनना चाहता हूं, इसी कामना से यहाँ आया हूँ ।" सम्राट् भिक्षु की कामना सुन किंचित् मुस्कराकर बोला- "आपकी सदिच्छा मंगलमयी है, लेकिन मेरी प्रार्थना है कि अगर सभी धर्मग्रन्थों की एक आवृत्ति और कर डालें। " भिक्षु मन ही मन बड़ा क्षुब्ध हुआ, पर सम्राट् के आगे व्यक्त न कर सका। सोचा- "क्यों न एक आवृत्ति और करके मुख्य धर्माचार्य का पद प्राप्त कर लूँ ।" दूसरे वर्ष जब वह सम्राट् के ग्रामने उपस्थित हुआ तो सम्राट् ने फिर
SR No.091010
Book TitleAnand Pravachana Part 9
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnandrushi
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1997
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size10 MB
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