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आनन्द प्रवचन भाग ६
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वाले लोग ऐसी तीव्र अनुभूति से रहित हैं, वे केवल शाब्दिक या आनुमानिक ज्ञान के आधार पर दूसरों को तत्त्वज्ञान की बातें कहते रहते हैं, जो कि अधूरा ज्ञान है । उसी तीव्रानुभूति के अभाव में आज अध्यालज्ञान आचरणविहीन, लंगड़ा और एकांगी हो गया है।
संत कबीरजी ने इसीलिए इस अनुभूत सत्य को प्रस्तुत किया था-मेरा-तेरा मनुवा कासे एक होय रे ?"
मैं कहता हूँ आँखिन देखी, तू कहता कागद की लेखी । उरझाय रे।। मैं कहता सुरझावनहारी, तू राखा
निष्कर्ष यह है कि अनुभव-ज्ञान के बिना केवल पढ़े-सुने या लिखे ज्ञान को ही सब कुछ ज्ञान मानकर आज कई धुरन्धर पण्डित गर्ज रहे हैं, और अपने आपको महान् ज्ञानी होने का दावा करते हैं। वास्तव में जीव्र अनुभूति के बिना महाज्ञानी या अध्यात्मज्ञानी होने का दावा करके दूसरों के माध्यम से किसी बात को दूसरे के दिमाग में ठसाना बहुत खतरनाक है। उससे जीवन में विसंगति होती है, आत्मतृप्ति नहीं । आत्मिक उत्कान्ति होने के बदले स्थितिस्थापकका आ जाती है। इसीलिए कबीरजी ने साफ-साफ कह दिया
पण्डित और मशालची, दोनों बुझे नाहिं ।
औरन को कर चाँदना, आप अंधेरे माहिं । ।
दीपक दूसरे पदार्थों को प्रकाशित करता है, मगर स्वयं उसके तले तो अंधेरा ही रहता है, इसी प्रकार जो तथाकथित अध्यात्मज्ञानी हैं, वे तीव्र अनुभूतिहीन होने के कारण दूसरों को समझाने के लिए कमर कसे रहते हैं, मगर स्वयं प्रत्यक्ष अनुभूति से रहित होने से अधूरा समझे बैठे हैं। इसीलिए व्तहा है
"स्वाज्ञानज्ञानिनी विरलाः '
'अपने अज्ञान को जानने वाले जगत् में विरले ही हैं।'
स्वयं में प्रकाश नहीं, वे दूसरे प्रकाश को कहीं जानते
जीवन में सबसे बड़ी शक्ति अपने आपको देखने-परखने की है। यदि वह प्रकाश किसी के पास है तो वह सच्चा ज्ञानी है। अगर यह प्रकाश नहीं है तो वेदों और पुराणों का, जैनागमों और पिटकों का प्रकाश भी किस काम का ? अमुक धर्म और संस्कृति का प्रकाश भी क्या काम आएगा ? दुनियाभर के प्रकाश उसके सामने चमकें, पर अगर उसकी आंखें खुली नहीं हैं, या नेत्रों में देखने की ज्योति नहीं है तो बाहर के किसी भी प्रकाश का कोई भी मूल्य नहीं रह जाता है, जीवन में।
एक राजा की सभा में यह प्रश्न छिड़ गया कि जगत् में सबसे बड़ा प्रकाश कौन-सा है। इसपर एक पण्डित ने कहा- "इसमें क्या पूछना है, सूर्य का प्रकाश ही सबसे बड़ा है।"
दूसरे पण्डित ने इसका प्रतिवाद करते हुए कहा- "सूर्य का प्रकाश प्रकाश होते