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आनन्द प्रवचन : भाग ६
अनुभूति की वेदी पर ही संयम, यम्-नियम आदि का पालन या आदर्शों का आचरण हो सकता है। जो व्यक्ति केवल निश्चयनय की बातें सुनकर या पढ़कर अथवा घोंटकर चलेगा, वह व्यवहारनय से बिल्कुल अनभिज्ञ या अधकचरे व्यक्ति समस्याओं के आने पर धोखा खाएगा। स्वयँ भी कष्ट में पड़ेगा और जिनको वह अध्यात्म की एकांगी बात बतायेगा वह भी दाव में पड़ेंगे। एक अनुभवहीन वेदान्तवादी बहन किसी अर्धविदग्ध उपदेशक से सुन आई
नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि, नैनं दहति पावकः।
न चैनं क्लेदयत्यापो, न शोषयति मारुतः । "इन आत्मा को न तो शस्त्र काट सकते हैं, न अग्नि जला सकती है, न इसे पानी गला सकता है, न ही हवा इसे सुखा सकती है।" निश्चयनय की तरह यह बातें उसके दिमाग में घूम रही थी कि "आत्मा न तो खाती है, न पीती है, वह तो बिलकुल निराहारी है।"
घर आते ही उसने चूल्हे की हड़तान कर दी। जब आत्मा निराहारी है तो आहार क्यों बनाया जाए ? शाम को उसके पति अपने दफ्तर से आए। घर में कदम रखते ही चूल्हा ठंढा देखा, श्रीमतीजी को लेंगे हुए उदास देखा तो बोले-"क्या आज तबियत ठीक नहीं है ? क्या आज रसोई ना बनेगी ?"
एकान्त निश्चयवादी उस महिला ने पाक से कहा-"आत्मा तो निराहारी है, वह तो अजर-अमर है, न कटता है, न जनता है, न गलता है, और न सूखता है। फिर किसके लिए रसोई बनाऊँ ?"
"अच्छा, आज निश्चयनय या वेदान्न का पाठ पढ़ आई हो, इसी से ऐसा कह रही हो। पर तुम्हें पता है, आत्मा के साथ शरीर भी लगा है, इन्द्रियाँ भी और मन भी। ये सम्पर्क सूत्र न होते तो न खाना निता, न सूंघना, चखना, सुनना, और स्पर्श करना होता। परन्तु अभी तो तुम्हारी आत्मा उस भूमिका पर नहीं पहुंची, इसलिए सभी कुछ व्यवहार करना पड़ेगा।"
फिर भी वह पूर्वाग्रही और जिद्दी महीला नहीं मानी और कहती रही—'ये सब औपाधिक हैं, बाह्य संयोग हैं, इनका आत्मा से कोई वास्ता नहीं है, ये तो अपने आप आते हैं और हट जाते हैं, आत्मा अपने आप में ठीक वैसी है, जैसा कि मैंने कहा है।"
अब तो पति महोदय से न रहा गया। उन्होंने उसके निश्चयवाद को परखने के लिए एक जलती हुई लकड़ी लाकर जरा-सी छुआ दी। फौरन महिला चिल्ला उठी-“ओ बाप रे ! मैं तो जल मरी।"
"जल कहां से गई ? तुम तो कहती थीं न, कि आत्मा जलती नहीं है ?" पति महोदय ने कहा।
अब उसकी अक्ल ठिकाने आई। चली—“यह तो शरीर के साथ सम्पर्क होने से जलती है।"