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________________ ३५६ आनन्द प्रवचन : भाग ६ अनभिज्ञ मूर्ख अपना चातुर्य बताने गया लेकिन हुआ वह हंसी का पात्र ही! इसी प्रकार जो जिस विषय में बिलकुल नहीं जानता या अधूरा जानता है, वह यदि उस अध्यात्म तत्त्व के विषय में किसी से कहता है तो हास्यास्पद ही बनता है। कथासरित्सागर में कहा है 'अन्नतानाम् कस्येह, नपहासाय जायते ?" 'अज्ञता किसको हास्यास्पद नहीं बना देती ?" परमार्थ के अज्ञानी : ऊंट वैद्य की तरह प्रायः देखा जाता है कि किसी परमध्य विषय में अज्ञानी मनुष्य उड़ान तो बहुत दूरकी भरता है, बातें भी बहुत ही लम्बी रोड़ी करता है, लेकिन ज्ञान के प्रकाश को देख सकने की उसकी आंखें नहीं होती। पाश्चात्य विद्वान् जार्ज हर्बर्ट (George Herbert) के शब्दों में देखिये "The ignorant hath an eagle's wings and an owl's eyes." ____ 'अज्ञानी व्यक्ति के पांखें तो गिद्ध की होती हैं, लेकिन आँखें होती हैं उल्लू की।" ऐसे अज्ञानी व्यक्ति प्रायः अन्धानुकरण करते हैं, वे न तो किसी दूसरे अनुभवी से कोई बात समझते या पूछते हैं, और न स्वयं ही अध्ययन-मनन करके अपने अज्ञान को मिटाते हैं, उलटे वे अपने आपको ज्ञानानेधि बताने का डोल करते हैं। एक शहर में एक नामी वैधजी थे। वे बहुत ही कुशलता और युक्तिपूर्वक रोगों की चिकित्सा करते थे। उनके पास एक नौसिखिया रहता था, जो दवाइयां कूटता और पुड़िया बांधकर रोगियों को देता था। एक दिन वैद्यजी के पास एक व्यक्ति अपना ऊँट लेकर घबराया हुआ आया और कहनि लगा- "वैद्यजी, जरा मेरे ऊंट का इलाज कर दीजिए, इसके गले में कल से कुछ घटक गया है, इस कारण यह कुछ खा नहीं सकता, केवल चिल्लाता रहता है।" वैद्य जी ने ऊंट को भलीभांति टलकर देखा । गला जहाँ फूला हुआ था, उस स्थान को हाथ से स्पर्श करके देखा। रोग उनकी समझ में आ गया। उन्होंने ऊँट के मालिक से कहा--"देखो भैया, ऊंट कर पीड़ा मैं दूर कर दूंगा, उसे स्वस्थ भी कर दूंगा। मेरे इलाज और श्रम के पचीस रुपये लूँगा।" ऊँट के मालिक ने स्वीकार किया। उन्होंने एक हाथ में लकड़ी का एक हथौड़ा लिया और ऊंट के गले के नीचे दूसरा हाथ रखा, फिर दो चोटें हथोड़े की लगाई, इससे गले में जो तरबूज अटका हुआ था, वह फूट गया और ऊँट अब उसे अच्छी तरह चबाकर खाने लगा, वह स्वस्थ हो गया। ऊंट के मालिक ने वैध को धन्वाद सहित २५ रुपये दे दिये और ऊंट को लेकर प्रसन्नतापूर्वक लौटा। वैद्यजी का नौसिखिया चेला उम्की इन चेष्टाओं और झटपट पांच मिनट में पञ्चीस रुपये बना लेने की वृत्ति देखकर मन ही मन सोचने लगा- मैं भी तो ऐसा कर
SR No.091010
Book TitleAnand Pravachana Part 9
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnandrushi
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1997
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size10 MB
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