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________________ परमाई से उगनभिज्ञ द्वारा कवन : विलाप ३५१ अन्धे मार्गदर्शक : अन्धे अनुगामी एक बात निश्चित है कि जिस मार्गदर्शक में स्वयं उस मार्ग, अध्यात्मज्ञान या परमार्थ पथ का बोध नहीं होता, वह आध्यामिक भाषा में अन्धा मार्गदर्शक कहलाता है। उसके पीछे चलने वाले भी अंधेरे में भटकते रहते हैं। उन्हें भी कोई सही मार्ग स्वयं नहीं सूझता, वे उक्त अज्ञमार्गदर्शक द्वाप बताये हुए मार्ग पर अन्धश्रद्धापूर्वक चलते रहते हैं। नतीजा यह होता है कि उन अन्धानुकरण करने वालों को अन्त तक कोई सही रास्ता नहीं मिल पाता, भाग्यवश यद उन्हें बाद में कोई उस गलत रास्ते से हटाकर सही रास्ते पर आने को कहता है या राही मार्ग बताता है तो भी वे पूर्वाग्रहबश उस मार्ग को प्रायः नहीं पकड़ते। वे अन्धश्रद्धालु होकर अपने तथाकथित परम्परागत गुरु के बताये मार्ग पर बेखटके चले जाते है और एक न एक दिन वे पतन के अन्ध गर्त में पड़ जाते हैं। इस प्रकार वे स्वयं का भी विनाश करते हैं और अपने अर्धविदग्ध मार्गदर्शक को भी बदनाम करते हैं। एक गाँव में बनियों की बस्ती थी। गाँव के बाहर बगीची में कुछ जन्मान्ध बाबा रहते थे। उन्हें काफी भजन, दोहे आदि याद शं, इसलिए वे लोगों को सुनाते रहते थे। गाँव के बनियों के यहाँ से प्रतिदिन उनके लिए रसोई आ जाती थी। समय-समय पर लोग उन्हें नकद रुपये भी भेंट करते थे। बाहर के यात्री भी बगीची में आते थे, वे भी उन्हें भेंट दे दिया करते थे। इस प्रकार सभी बाओं के पास काफी रुपये इकट्ठे हो गये। उनके मन में लोभ भी पैदा हो गया था कि रुपये कैसे बढ़ें। उन्होंने रुपयों से सोने की गिनियाँ खरीद ली और नौली में डालकर अपनी कमर में बाँधे रखते। वे किसी का भरोसा नहीं करते थे। एक बार वहाँ कुछ ठग आ गये। उन्हें पता लगा कि बगीची वाले अंधे बाबाओं के पास काफी गिन्नियाँ हैं, अतः वे उनके दर्शन करने आये। कहने लगे--"हम बम्बई के जौहरी हैं, तीर्थयात्रा पर निकले हैं। आज का दिन धन्य है जो आप जैसे महात्माओं के दर्शन हुए। आज तो हमारा प्रसाद ग्रहण कीजिए।" ठगों ने दाल, बाटी, चूरमा तैयार किया और सभी बाबाओं को मनुहार के साथ भोजन कराया। भोजन के बाद प्रत्येक बाबा के चरणों में एक-एक गिन्नी भेंट रख दी। दूसरे दिन जब वे ठग जाने लगे तो बोले—“आगे में अनेक श्रेष्ठ तीर्थों में जाना है, मगर हमारे सामने एक कठिनाई है कि हमने यह नियम ले रखा है कि प्रतिदिन किसी न किसी महात्मा को भोजन करवाकर उन्हें स्वर्णमुद्रा भेंट करके ही अन्न ग्रहण करना। आप कृपा करके हमारे साथ चलें तो हमारा यह नियम निभ सकता है, अन्यथा हमें कई-कई दिनों तक भूखा रहना पड़ेगा। हमारे साथ पूरा इंतजाम है। एक रथ में आप ४-५ जनों को बिठा देंगे, और हम पीछे-पीई आपकी सेवा में पैदल चलते रहेंगे। आपको कोई कठिनाई न होगी, तीर्थयात्रा भी हो जाएगी।" ठगों का यह प्रस्ताव सुनकर सब बाबाओं की बाँहें खिल उठीं। वे तो
SR No.091010
Book TitleAnand Pravachana Part 9
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnandrushi
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1997
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size10 MB
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