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________________ अरुचि वाले को परमार्थ-कथन : विलाप मन में विकल्प उठा कि ये सब मैंने कहीं देखें। हैं। यों बार-बार ऊहापोह करते-करते उसे जातिस्मरणज्ञान हो गया। अतः उससे पहले के पाँच जन्मों की घटना चलचित्र की तरह स्पष्ट दिखाई देने लगी। "पिछले जन्म में मैं औरमेरा भाई दोनों सौधर्म देवलोक में देव थे। पर इस जन्म में पता नहीं, वह मेरा पांच जन्मों का साथी भाई कहाँ है ?" यों सोचकर ब्रह्मदत्त चक्री मूर्छित हो गया। होश में आते ही उसने अपने पाँच जन्मों के साथी भाई का पता लगाने हेतु डेढ़ श्लोक लिया और उसके एक चरण की पूर्ति करने वाले को इनाम देने की घोषणा की-- दासा 'दसणे' आसी, गिया कालिंजरे नगे। हंसा मायंगतीराए, सोवागा कासिभूमिए।। देवा य देवलोगम्मि आसी अम्हे महिडिढया। संयोगवश जातिस्मरण ज्ञानप्राप्त चित्त नुनि भी ब्रह्मदत्त राजा के नगर में मनोरम नामक उद्यान में पधारे हुए थे, वे कायोत्सरस्थ थे। वहीं रेहट चलाता हुआ एक किसान इस डेढ़ श्लोक को बार-बार पढ़ने लगा। उसे सुनकर ज्ञान के उपयोग लगाकर मुनि ने अपने पूर्वजन्म के भाई का वर्तमान स्वरूप जाना और उस श्लोक के पश्चार्द्ध की इस प्रकार पूर्ति की इमाणो छट्ठिआ जाई, अष्णमण्णेण जा विणा । रेहट वालाकिसान इस श्लोक की पूर्ति लेकर हर्षित होता हुआ ब्रह्मदत्त के पास पहुँचा। श्लोक का पश्चार्द्ध सुनते ही भ्रातृस्नेघश ब्रह्मदत्त मूर्छित हो गया। राजसेवकों ने किसान को पकड़कर धगकाया, तब उसने सच्ची बात कह दी कि "हजूर ! इस श्लोक की पूर्ति मैने नहीं, मनोरम उद्यानस्थ मुनि ने की है।" तब उसे छोड़ दिया। ब्रह्मदत्त सपरिवार मुनिवन्दन को गया। मुनि ने ब्रह्मदत्त राजा को अध्यात्मप्रेरक धर्मोपदेश दिया, जिसमें संसार की असारता, कर्मबन्ध के कारण, निवारणोपाय, मोक्षमार्ग आदि का वर्णन किया, जिससे उस सभा में स्थित कुछ लोगों को विरक्ति हुई, लेकिन ब्रह्मदत्त के मन पर लेशमात्र भी असर न हुआ। उलटे वह सांसारिक विषयभोगों तथा राज्यग्रहण आदि के लिए चित्तमुनि को आमंत्रित करने लगा। परन्तु मुनि तो अपने संयम में दृढ़ रहे। उन्होंने विविध प्रकार के कामभोगों की असारता समझाई, किन्तु ब्रह्मदत्त टस से मस नहीं हुआ। अन्त में मुनि यह कहकर वहाँ से चल पड़े कि “राजन् ! आपको इतना समझाने पर भी भोगों का त्याग करने की बुद्धि नहीं आती, आरम्भ-परिग्रह में अत्यासक्त बने हुए हो। इसी कारण मैंने जो इतनी देर तक विप्रलाप किया वह व्यर्थ गया। अतः मैं आ रहा हूँ।" इस प्रकार अरुचिबान ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती ने मुनि के आध्यामिक उपदेश की एक
SR No.091010
Book TitleAnand Pravachana Part 9
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnandrushi
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1997
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size10 MB
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