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________________ ३४२ आनन्द प्रवचन भाग ६ हुए सभी अर्थों का समावेश भी सम्यक्रूचि में हो जाता है। बात यह है कि इस प्रकार की सम्यक्तचि से सम्पन्न व्यक्ति चाहे गृहस्थ हो या साधु, पढ़ा-लिखा हो या अनपढ़, बालक हो का वृद्ध हो या युवक, धनी हो या निर्धन, साधारण हो या विशिष्ट, आध्यात्मिक ज्ञान आ परमार्थबोध के योग्य पात्र हैं। इसके सिवाय भौतिक रुचि, मिथ्यारुचि का व्यक्ति वाहे कितना ही पढ़ा-लिखा हो, चाहे वह सत्ताधारी हो, चाहे श्रावक के घर में जन्मा हो, चाहे वह आर्यक्षेत्र, उत्तम कुल, पंचेन्द्रिय, दीर्घायुष्य, स्वस्थ और सशक्त हो, चाहे वह आध्यात्मिक ग्रन्थों का बहुत पारायण करता हो, सम्यक्रुचि के अभाव में बार भी परमार्थ-बोध के लिए अपात्र है। बहुत से लोग बाहर से बहुत ही सीधे-सादे सरल, भोले-भाले और अनपढ़ होते हैं। परन्तु वे सम्यक्रूचि से सम्पन्न नहीं होने कि कारण तत्त्वज्ञान के बोध या उपदेश के अनधिकारी हैं। चाहे वह साधु-संतों की सेवा में बहुत आता हो, बहुत ही विनयभक्ति करता हो, लेकिन तत्त्वज्ञान के विषय में उसको बिल्कुल रुचि या श्रद्धा नहीं है, तो वह परमार्थबोध के लिए अयोग्य है, क्योंकि उसे समझने पर भी उन गूढ़ दार्शनिक बातों को समझ नहीं सकेगा, या तो वह उस समय नींद की झपकी लेगा, या वह ऊबकर जम्हाई लेने लगेगा | एक रोचक उदाहरण लीजिए- मारवाड़ के एक गाँव में चौमासे के लिए संत पहुँचे। वहाँ के कुछ तथाकथित श्रावकों को पता लगा तो वे दर्शनार्थ आये। दूसरे दिन सुबह व्याख्यान का समय हुआ तो मुनिवर ने वहाँ के अग्रगण्य श्रावकों से पूरा कहो साहब ! कौन सा शास्त्र बांधा जाए ?" "कोई नया ही शास्त्र होना चाहिए, महाराज !” जानकार कहलाने वाले श्रावकों ने कहा ! "क्या भगवती सूत्र शुरू किया जाय ९" महाराज साहब ने पूछा । इस पर वे बोले "सुणो परो महाराजा!" "तो क्या आचारांग, सूत्रकृतांग, प्रज्ञागना, नन्दी आदि में से कोई शास्त्र सुनाया जाए ?" लालबुझक्कड़जी बोले -"ये सब सुने हुए हैं, कोई नया शास्त्र होना चाहिए। " मुनिजी ने कई शास्त्रों के नाम गिनाये; परन्तु हर बार उनका यही होता--"ओ भी सुणो परी, बावजी !" मुनिजी ने उन ज्ञानलवदुर्विदग्धों की ज्ञानगरिमा की परीक्षा के लिए पूछा - "श्रावकजी ! पांचों इन्द्रियों में से आप में और मेरे में कितनी-कितनी इन्द्रियाँ
SR No.091010
Book TitleAnand Pravachana Part 9
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnandrushi
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1997
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size10 MB
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