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३७.
अरुचि वाले को परमार्थ- कथन : विलाप
धर्मप्रेमी बन्धुओ !
आज मैं आपके समक्ष एक महत्वपूर्ण सत्य का उद्घाटन करना चाहता हूं, जिसका साधकजीवन के हर मोड़ पर ध्यान रखना आवश्यक है। गैतम कुलक का यह इकत्तीसवां जीवनसूत्र है। इसमें एक सत्य का निर्देश महर्षि गौतम ने किया है— 'अरोइ अत्यं कई बिलावो'
"जिसकी अरुचि है, उसे परमार्थ कहना विलाप है । '
वक्ताओं की बाढ़
आज तो संसार में प्रायः वक्ताओं को बाढ़ सी आ गई है। भारतवर्ष में तो आपको गली-गली में दार्शनिक और उपदेश देने वाले तत्त्वज्ञान बघारने वाले, बिना पूछे सलाह देने वाले, अपने परिवार में सदों को जबरन तत्त्वज्ञान की घुटी पिलाने वाले, समाज में लालबुझक्कड़ बनकर परमार्थ, वेदान्त एवं निश्चयनय की ऊंची-ऊंची बातें कहने वाले मिल जाएंगे। परन्तु दुर्भाग्य है कि वे वक्ता या उपदेशक अथवा सलाहकार अपने श्रोताओं की परख नहीं करते, अपने श्रोताओं की भूमिका को नहीं देखते, अपने श्रोताओं की रुचि अरुचि की जांच-पड़ताल नहीं करते और धड़ल्ले से उपदेश की वर्षा, परामर्श की वृष्टि और फामार्थ कथन की धारा बहाते रहते हैं। जिसका नतीजा यह होता है कि उन वक्ताओं या उपदेशकों अथवा उन परमार्थकों के प्रति लोकश्रद्धा का ह्रास होता जाता है। उनके उपदेशों के अनुसार न चल सकने के कारण उन श्रोताओं को यथेष्ट लाभ पर्याप्त सन्तोष नहीं होता, जिससे वे उनके विरोधी बन जाते हैं। ऐसे श्रोताओं पर उन बक्तानों की उपदेशधारा का कोई असर नहीं होता। इस विषय में मुझे मुद्गशैल का एक प्रास्त्रीय उदाहरण याद रहा है
गोष्पद नामक वन में एक बहुत ही छोटा-सा पर्वत था, जिसका नाम था— मुद्गशैल। एक था पुष्कतरावर्त महामेव, जो बहुत ही लम्बा-चौड़ा था । कहते हैं, उस का फैलाव जम्बूद्वीप के बराबर होता है।