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________________ ३१० आनन्द प्रवचन : भाग ६ मैं क्या करूँ ?" पाश्चात्य दार्शनिक प्लेटो ने ठीक ही कहा है- "The passionates are like men standing on their heads, they see all things he wrong way." ' आवेशग्रस्त व्यक्ति उन व्यक्तियों की तरह है, जो अपने सिर के बल पर ( शीर्षासन करके ) खड़े हैं, वे सभी बातें उलटी दिशा में सोचते, देखते हैं । ' बहुत से लोग क्रोध या क्षोभ के समय बिलकुल राक्षसों का सा रूप धारण कर लेते हैं। ऐसे लोग जब क्रोधाविष्ट होते तो अपने सामने जो कुछ पाते हैं, उठा-उठाकर फेंकने लगते हैं, या जो सामने आता है, उसी को मार बैठते हैं। जो लोग उन्हें समझा-बुझाकर शान्त करने लगते हैं, उन्हें भी वे गालियाँ देने या अपशब्द कहने पर उतारू हो जाते हैं। ऐसे लोग छोटे-छोटे बच्चों और पशुओं आदि तक को मारते-मारते वेदम कर देते हैं । जब उन पर क्रोध का भूत सवार होता है, तब उन्हें आगा-पीछा या अच्छा-बुरा कुछ भी नहीं दिखाई देता। ऐसे लोग गुस्सा उतर जाने के बहुत देर बाद तक भी बिलकुल बेसुध और काम से रहते हैं, उस समय वे न तो कुछ सोच-समझ सकते हैं, और न ही कुछ कह या कर सकते हैं। अमेरिका में एक ऐसा परिवार था, जिसके छोटे-बड़े सब आदमी मिलकर लड़ने लग जाया करते थे और ऐसे लड़ते थे कि देखने-सुनने वाले दंग रह जाते थे। वे आपस में एक-दूसरे को खूब नोचते, खसोटते थे और कपड़े-लत्ते फाड़ डालते थे। उस समय उनके चेहरे बिलकुल बदल जाते थे। वे पहचाने नहीं जाते थे। उन्हें देखने से ऐसा मालूम पड़ता था, मानो बहुत से शैतान आपस में लड़ रहे हों। भला इस प्रकार के आवेशमय वातावरण से द्वेष, वैर, विरोध, शत्रुता और वैमनस्य बढ़ने के सिवाय और भयंकर पापकर्म-बन्धन के सिवाय और का नतीजा निकल सकता है ? ऐसे ही अवसरों पर आवेशग्रस्त लोग अपने परिवार के किसी आदमी की हत्या तक कर बैठते हैं। ऐसे क्रोधान्ध बाद में बहुत पछताते हैं। पर उस समय पछताने से क्या होता है ? कई बार लोग जरा-सी बात या जरा से अपमान—कल्पित अपमान के कारण किसी से बहुत चिढ़ जाते हैं, और आवेश में आकर वर्षों तक उससे बदला लेने की उधेड़बुन में लगे रहते हैं। उनकी बुद्धि वर्ष तक ठीक नहीं होती। एक ऐतिहासिक उदाहरण लीजिए— काठियावाड़ के एक कस्बे में मेघाशा नाम के सेठ थे। उनकी पत्नी का नाम रूपाली बा था। सेठ रूपाली बा पर इतने घासक्त थे कि वह कहती, वैसे ही सेठ को चलना पड़ता। एक दिन कुछ पड़ौसिनों के साथ रूपाली या घूमने निकली। घूमती घूमती वे सभी कुंभार के यहाँ बर्तन खरीदने पहुँच गई। सबने अपनी इच्छानुसार बर्तन पसन्त किये और कुंभार को उनके पैसे चुकाकर चलने लगी। रूपाली वा ने भी ४-५ बर्तन पसन्द किये थे, लेकिन पास में छह-सात आने भी न थे। इसलिए उसने =
SR No.091010
Book TitleAnand Pravachana Part 9
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnandrushi
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1997
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size10 MB
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