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________________ ३०६ आनन्द प्रवचन : भाग ६ अपना पक्ष प्रस्तुत करते हुए कहा ___ "प्रभो ! ये कहते हैं कि अशोकवाटिता के फूल सफेद थे, जवकि मैंने लाल देखे थे। इन्हें समझाइए कि गलत बात पर हठ न करें।" श्रीराम ने हनुमान के तमतमाए केरे को देखा तो मंद-मंद मुस्कराते हुए बोले -"अंजनिनन्दन ! मैं तो अशोकवाटिका गया ही नहीं, वहाँ तो जानकी ही रही थी, वही प्रत्यक्षदर्शी हैं। उनसे ही निर्णय कर लो।" हनुमान ऋषि वाल्मीकि को लेकर मोताजी के पास पहुंचे। उनके चरणों में नमस्कार करते ही हनुमान का आवेश शान्त हो गया। हनुमान ने जब अशोकवाटिका के फूलों के सम्बन्ध में निर्णय मांगा तो सतिाजी ने कहा- "वत्स ! फूल सफेद ही थे।" इस पर चकित होकर हनुमानजी में पूछा - "फिर मुझे लाल क्यों दिखाई दिये?" "क्रोध की उत्तेजना के कारण ! जरा तुमने अशोक वाटिका में प्रवेश किया तो वहाँ की रमणीयता देखकर तुम्हारे नेत्र क्रोध से लाल हो गए। तुमने सोचा-'इस पापी रावण की ऐसी सुन्दर वाटिका !' बस, इसी कारण तुम्हें अशोक वाटिका के सफेद फूल भी लाल रंग के दिखाई दिये । ओह' निष्कर्ष यह है कि हनुमानजी ने पुष्प क्रोधकषायरंजित नेत्रों से देखे, इस कारण उन्हें वे लाल दिखाई दिए, जबकि ऋषि वाल्मीकि ने कषायहीन चक्षुओं से, इस कारण वे उनको असली रूप में देख सके। क्रोध का प्रकोप : अतीव भयंकर व हमिकर शरीर में ज्वर आता है तो उसका ज्ञापमान बढ़ जाता है, उससे कई तरह की गड़बड़ियाँ पैदा हो जाती हैं। ज्वरग्रस्त व्यक्ति का शरीर जलता है, उसे प्यास लगती है, सिरदर्द होता है, पैर भी जलते हैं, नींद और भूख मर जाती है, बड़ी बेचैनी होती है, थकान और कमजोरी भी बहुत आ जाती है। किसी काम में मन नहीं लगता। सोचना और बोलना भी ठीक तरह से नहीं होता, थोड़े दिन का बुखार भी शरीर को बिल्कुल तोड़ देता है। शरीर की तरह मन-मस्तिष्क को भी जब ज्वर आता है तो वह शारीरिक ज्वर की अपेक्षा कई गुना भयंकर एवं हानिकर सिद्ध होता है। इस मानसिक चर का एक प्रकार है-क्रोध का प्रकोप। क्रोध का प्रकोप एक प्रकार का क्षणिक पागलपन है। यह स्थिति एक तूफान के समान है जो गनुष्य की भावनाओं को जला देता है। यह बड़ी नृशंस उत्तेजना है, जिससे व्यक्ति की दूरदर्शिता और विवेकशक्ति नष्ट हो जाती है। विवेक दीपक बुझने पर व्यक्ति अज्ञाF के अंधेरे में भटकने लगता है, बस्तुस्थिति और बास्तविकता को जानने की बुद्धि ही नहीं रहती, इस कारण वह सच्चाई को समझ नहीं पाता, उचित निर्णय नहीं कर पाता। फलतः वह बिना विचारे सर्वस्व स्वाहा करने
SR No.091010
Book TitleAnand Pravachana Part 9
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnandrushi
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1997
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size10 MB
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